राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य इंद्रेश कुमार द्वारा लोकसभा चुनाव नतीजों पर की गई टिप्पणी के बाद विभिन्न राजनीतिक दल और बुद्धिजीवी उसके कई मायने निकालेंगे। नतीजों का सार तो यह है कि केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाले राजग की सरकार बन गई, नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बन गए, कांग्रेस सहित पूरा विपक्ष अपनी सीटों की बढ़ी हुई संख्या के साथ खुद को ऊर्जावान महसूस कर रहा है। हकीकत यह भी है कि इंडि गठबंधन को पूरा जोर लगाने के बावजूद सत्ता नसीब नहीं हुई। हां, इन चुनाव नतीजों का विश्लेषण होता रहेगा। कम-से-कम अगले लोकसभा चुनाव तक तो इनकी चर्चा जारी रहेगी। भाजपा को यह ताना मिलता रहेगा कि वह 400 पार का दावा कर रही थी, लेकिन अपने बूते 272 का आंकड़ा पार नहीं कर पाई। वहीं, लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की लगातार तीसरी हार को लेकर इस पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व की रीति-नीति पर सवाल उठते रहेंगे। वास्तव में इस बार लोकसभा चुनाव नतीजे देखकर बड़े-बड़े बुद्धिजीवी चकरा गए। अगर बड़े एग्जिट पोल्स को छोड़ दें तो ऐसे कई विश्लेषक, जो अपने यूट्यूब चैनल चलाते हैं, जिनमें से कई तो लाखों दर्शकों द्वारा देखे जाते हैं, वे भी चार जून के बाद माफी मांगते नजर आए। उन्होंने स्वीकार किया कि उनसे कहीं-न-कहीं भूल हुई, इसलिए वे सही आकलन नहीं कर पाए। मतदाता ने न तो भाजपा को पूरी तरह हराया और न कांग्रेस को पूरी तरह जिताया। उसने राजनीतिक दलों को अपनी ताकत का एहसास करा दिया कि बड़े नेता, बड़े भाषण और बड़े दावे अपनी जगह हैं। भीड़ देखकर, जय-जयकार सुनकर इस भ्रम में न रहें कि सभी वोट आपको मिल जाएंगे।
जब नरेंद्र मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने थे, तब 'अच्छे दिन आने वाले हैं' के नारे ने लोगों में उम्मीद जगाई थी। इस नारे ने मतदाता के मन में आशा का संचार किया था कि मोदी ने जिस तरह गुजरात में विकास किया, उसी तरह देश का विकास करते हुए उनकी ज़िंदगी से तकलीफों को दूर कर देंगे। साल 2019 में राष्ट्रवाद की लहर के साथ 'फिर एक बार मोदी सरकार' के नारे ने भाजपा कार्यकर्ताओं और मोदी समर्थकों में जोश भर दिया था। वहीं, 'अबकी बार, 400 पार' के नारे में ये बातें गायब थीं। इसने कई नेताओं और कार्यकर्ताओं को अति-आत्मविश्वास से भर दिया। उनमें निष्क्रियता घर करने लगी थी। ऐसे कई इलाके हैं, जहां लोग यह कहते नजर आए कि हमारे यहां भाजपा का न तो कोई कार्यकर्ता आया और न ही किसी नेता ने दर्शन दिए। अलबत्ता वे सोशल मीडिया पर पोस्ट खूब डालते रहे। जब भाजपा कार्यकर्ताओं - खासकर उन इलाकों में जहां वे मौजूदा लोकसभा सांसद / उम्मीदवार से संतुष्ट नहीं थे और उन्हें चुनाव में हारता हुआ देखना चाहते थे - ने इस नारे को सुना तो उन्हें लगा कि हम तो 400 पार कर ही रहे हैं, अगर हमारे लोकसभा क्षेत्र से उम्मीदवार हार जाएगा तो उससे पार्टी के प्रदर्शन पर खास फर्क नहीं पड़ेगा। कई सीटों पर भाजपा कार्यकर्ता टिकट वितरण को लेकर नाराज थे। अन्य दलों के नेता, जिनमें कुछ दागी पृष्ठभूमि से थे, जिनके खिलाफ भाजपा कार्यकर्ता खूब विरोध-प्रदर्शन करते थे, जब वे पार्टी में शामिल होकर अधिक मान-सम्मान और टिकट वितरण में तरजीह पाने लगे तो जमीन पर सक्रिय कार्यकर्ताओं ने खुद को उपेक्षित महसूस किया। इन सब बातों का असर नतीजों में दिखाई दिया। जमीन से जुड़े हुए, आम लोगों के बीच जाकर उनसे बात करने वाले, उनके मुद्दे उठाने वाले कार्यकर्ता किसी पार्टी की सबसे बड़ी संपत्ति होते हैं, जो वक्त आने पर इतिहास रच देते हैं। नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपनी पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं को यह बात बेहतर ढंग से इसलिए भी समझा सकते हैं, क्योंकि वे खुद जमीनी स्तर पर काम करते हुए यहां तक पहुंचे हैं।