एनसीईआरटी के निदेशक दिनेश प्रसाद सकलानी का यह बयान विचारणीय है कि 'स्कूली पाठ्यपुस्तकों में दंगों के बारे में क्यों पढ़ाना चाहिए? हम सकारात्मक नागरिक बनाना चाहते हैं, न कि हिंसक और अवसादग्रस्त व्यक्ति।' स्कूली बच्चों का मन उस कच्ची मिट्टी की तरह होता है, जो वैसा ही आकार ले लेती है, जैसा उसे देने की कोशिश की जाती है। पाठ्यक्रम को समयानुसार जरूर बदलना चाहिए। आज के बच्चे ही भविष्य में देश को दिशा देंगे। लिहाजा उन्हें पाठ्यपुस्तकों में ऐसी सामग्री उपलब्ध करानी चाहिए, जो उनके दिलो-दिमाग को पूर्वाग्रह, घृणा और भेदभाव से दूर रखे। इतिहास में ऐसे कई अध्याय हैं, जिनके साथ कड़वी यादें जुड़ी हुई हैं। विद्यार्थियों को उनके बारे में पता होना चाहिए, लेकिन एक खास उम्र के बाद। इतिहास बताने या पढ़ाने का तरीका भी बहुत मायने रखता है। यह ऐसा होना चाहिए, जिससे विद्यार्थियों को सही जानकारी मिले, वे न किसी से नफरत करें, न उनमें हीनभावना पैदा हो और न ही प्रतिशोध की ज्वाला भड़के। सब जानते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बमों से हमला किया था, जिसमें लाखों लोगों की जानें चली गई थीं, लाखों ही घायल हो गए थे। ये दोनों शहर पूरी तरह खंडहर बन गए थे। युद्ध समाप्त होने के बाद जब स्कूलों के लिए नए पाठ्यक्रम तैयार करने का समय आया, तब न तो अमेरिकी बच्चों को यह पढ़ाया गया कि उनके नेताओं के फैसलों ने जापान में खूब कहर बरपाया था और न जापान के बच्चों को यह पढ़ाया गया कि उनके साथ बहुत बड़ी ज्यादती हो गई, लिहाजा उन्हें बड़े होकर बदला लेना है, अमेरिका पर उसी तरह धावा बोलना है!
आज अमेरिका और जापान के संबंध बहुत अच्छे हैं। दोनों देशों के लोग जब एक-दूसरे के यहां जाते हैं तो उनमें न विजय का अहंकार देखने को मिलता है और न ही किसी की आंखों में प्रतिशोध की अग्नि धधकती नजर आती है। बल्कि हिरोशिमा और नागासाकी में कई बार ऐसा देखा गया, जब अमेरिकी और जापानी लोग गले मिलकर रोए। स्पष्ट है कि वे यह तो मानते हैं कि इतिहास में अप्रिय घटनाएं हुईं, लेकिन वे उन कड़वी यादों से बाहर निकलना चाहते हैं, उन्हें वर्तमान एवं भविष्य पर हावी नहीं होने देना चाहते। मई 2016 में जब अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा हिरोशिमा गए थे, तब वे एक बुजुर्ग से गले मिलकर भावुक नजर आए थे। उन बुजुर्ग के परिवार के कई सदस्य बमकांड में मारे गए थे। अगर आज अमेरिका और जापान के लोगों के बीच दुश्मनी और नफरत नहीं है तो इसका श्रेय उन विशेषज्ञों व लेखकों को भी दिया जाना चाहिए, जिन्होंने दशकों पहले स्कूली पाठ्यक्रम तैयार किया था। बच्चों को हिंसा, नफरत, कट्टरता और अहंकार की बातें सिखाने का उनके कोमल मन पर क्या असर हो सकता है, इसका ज्वलंत उदाहरण पाकिस्तान है। उसकी पाठ्यपुस्तकों में भारत और स्वयं के अल्पसंख्यक समुदायों की आस्था के खिलाफ जो बातें लिखी गईं, उनका असर साफ दिखाई दे रहा है। आज पाकिस्तानी स्वदेश में रहें या विदेश में, उनके कुछ 'कारनामे' सबके लिए समस्या पैदा करते हैं। इसकी जड़ में वह पाठ्यक्रम है, जिसके जरिए बच्चों के मन में नफरत का जहर घोला गया। भारत में नब्बे के दशक में स्कूलों में सुबह होने वाली प्रार्थना सभाओं में अख़बार पढ़कर सुनाने का बहुत चलन था। उस दौरान हिंसा, दुष्कर्म, चोरी, बैंक डकैती, छेड़छाड़ समेत सभी तरह के अपराधों से संबंधित खबरें बिल्कुल नहीं सुनाई जाती थीं, क्योंकि उनसे बच्चों के मन पर बुरा असर पड़ सकता था। उन्हें सामान्य ज्ञान, प्रेरक घटनाओं, महापुरुषों, सकारात्मक कार्यों, वैज्ञानिक शोध और देश की प्रगति से संबंधित घटनाओं के बारे में बताया जाता था। पाठ्यक्रम निर्माण में भी इसी नियम का पालन करना चाहिए। पाठ्यपुस्तकें ऐसी हों, जिन्हें पढ़कर विद्यार्थियों में सकारात्मक दृष्टिकोण, सद्भाव और एकता की भावना पैदा हो।