तमिलनाडु के कल्लाकुरिचि जिले के करुणापुरम में जहरीली शराब पीने से कई लोगों के जान गंवाने की घटना अत्यंत दु:खद है। अब राज्य सरकार सख्ती दिखा रही है, प्रशासन आरोपियों की पकड़-धकड़ में व्यस्त है। अगर यही सतर्कता पहले दिखाई होती तो इतनी बड़ी घटना नहीं होती। तमिलनाडु ही नहीं, कई राज्यों में अवैध शराब का 'धंधा' चल रहा है, फलफूल रहा है। इस पदार्थ का सेवन करने वाले ज्यादातर लोग साधारण आर्थिक पृष्ठभूमि वाले परिवारों से आते हैं। वे सस्ती शराब के लोभ में इसके ग्राहक बनते हैं। कुछ अधिकारी साहस दिखाते हुए अवैध शराब निर्माताओं के खिलाफ कार्रवाई भी करते हैं। समय-समय पर ऐसी भट्टियां नष्ट करने की खबरें आती रहती हैं, जिन पर यह ज़हर तैयार किया जाता है। इसके बावजूद 'धंधा' चल रहा है, लोग पी रहे हैं, शिकार हो रहे हैं। लगाम कौन लगाए? जिन पर रोकने की जिम्मेदारी होती है, उन पर कई बार गंभीर आरोप लग चुके हैं। जब तक मामला 'ठीक चलता' है, 'सबकुछ' चलता रहता है। एक बार जब जहरीली शराब बन जाती है तो कई लोग काल के ग्रास बनते हैं। उसके बाद सरकार मुआवजे की घोषणा करती है, दो-चार अफसरों का स्थानांतरण या निलंबन होता है, कुछ आरोपी गिरफ्तार कर लिए जाते हैं, राजनीतिक दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता है। कुछ दिन बाद बात आई-गई हो जाती है। फिर एक और कांड का इंतजार किया जाता है। जिन परिवारों के 'अपने' चले गए, वे ज़िंदगीभर दर्द बर्दाश्त करते हैं। तमिलनाडु की इस घटना के बाद सोशल मीडिया पर आईं तस्वीरें दिल दहला देने वाली हैं। रोतीं महिलाएं, बिलखते बच्चे, सांत्वना देते लोग ... और श्मशान में एकसाथ तैयार की जा रहीं कई चिताएं!
शराब पीना कोई अच्छी आदत तो नहीं है। अवैध रूप से बनी शराब हो या कानूनी इजाजत से दुकानों पर बिकने वाली शराब, दोनों ही सेहत के लिए नुकसानदेह हैं। अवैध शराब कई बार निर्माण के दौरान रासायनिक गड़बड़ी के कारण जहरीली हो जाती है, क्योंकि निर्माताओं के पास जांच आदि के साधन नहीं होते, कोई जवाबदेही नहीं होती। कारखानों में बनने वाली शराब के कुछ मानक तय किए जाते हैं। उसकी बिक्री पर सरकार को राजस्व मिलता है। 'कौनसी शराब कितना नुकसान करती है' के बजाय इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि 'शराब आखिर में नुकसान ही करती है'। इस नशे को जनता तक पहुंचाने के लिए अलग-अलग रास्ते निकालने से बेहतर है कि इस पर प्रतिबंध लगाया जाए। आज़ादी की लड़ाई के दौरान शराबबंदी को लेकर आंदोलन होते थे। दुर्भाग्य की बात है कि जब देश आज़ाद हो गया तो यह नशा कारोबार की शक्ल लेकर बढ़ता जा रहा है। जिन लोगों ने वर्षों पहले छोटी-सी दुकान से शराब बेचनी शुरू की थी, वे बड़े-बड़े बंगलों, गाड़ियों और फार्म हाउसों के मालिक हो गए। जिन्होंने वर्षों पहले पीनी शुरू की थी, वे सेहत, संपत्ति, संबंध समेत बहुत कुछ गंवा बैठे। महात्मा गांधी ऐसा भारत नहीं बनाना चाहते थे, जहां लोग अंग्रेजों की गुलामी से जान छुड़ाकर नशे के गुलाम हो जाएं। शराब के पक्ष में कुछ लोगों ने कई कुतर्क गढ़ रखे हैं- 'इतिहास पढ़ें, फलां योद्धा भी तो पीता था, जो कितना बड़ा शासक बना।' ऐसा कुतर्क देने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि दुनिया में उस 'योद्धा' से भी बड़े योद्धा और शासक हुए हैं, जिन्होंने शराब के बर्तन का स्पर्श तक नहीं किया था? क्या भारत में दूध, छाछ, लस्सी, शर्बत, फलों के रस आदि की कमी है, जो इन्हें छोड़कर जहर को मुंह लगाएं? रामायण, महाभारत में ऐसे कई योद्धाओं का उल्लेख मिल जाएगा, जिनका खानपान पूर्णत: सात्विक था और वे वीरता एवं विजय के पर्याय बने। शराब हर दृष्टि से त्याज्य है। इस बात को हम जितना जल्दी समझ लें, उतना अच्छा है।