जवाबदेही सुनिश्चित करें

अगर अधिकारी एक चौथाई गंभीरता भी पहले दिखा देते तो इतना बड़ा हादसा नहीं होता

जैसे ही मानसून शुरू होता है, सड़कें दरिया बन जाती हैं

दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे के टर्मिनल-1 पर हुआ हादसा कई सवाल खड़े करता है। राष्ट्रीय राजधानी के हवाईअड्डे पर इतना बड़ा हादसा कैसे हो सकता है, जबकि अभी तो मानसून शुरुआती दौर में है? हवाईअड्डों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कुछ नियम होते हैं। समय-समय पर उन्हें जांचा-परखा जाता है। क्या संबंधित अधिकारियों व कर्मचारियों का इस ओर ध्यान नहीं गया? हादसे के बाद सोशल मीडिया पर जैसी तस्वीरें साझा की जा रही हैं, उन्हें देखकर तो यही लगता है कि कहीं कोई बड़ी चूक हुई है। अन्यथा छत का इतना बड़ा हिस्सा कैसे गिर सकता है? हादसे के बाद बड़े-बड़े अधिकारी घटनास्थल पर पहुंचे। यह दिखाया जा रहा है कि वे लोगों की सुरक्षा को लेकर सच में बहुत गंभीर हो गए हैं। अगर अधिकारी एक चौथाई गंभीरता भी पहले दिखा देते तो इतना बड़ा हादसा नहीं होता। प्राय: हादसों के बाद जनाक्रोश को शांत करने के लिए मुआवजे की घोषणा कर दी जाती है। मुआवजा जरूर देना चाहिए, लेकिन क्या इतना कर देना काफी है? देश के एक-एक नागरिक की जान अनमोल है। उसकी कीमत कुछ लाख रुपयों में नहीं आंकी जा सकती। सुनिश्चित यह करना होगा कि सुरक्षा मानकों का सही तरीके से पालन किया जाए, लोगों के जीवन को अधिक सुरक्षित बनाया जाए, मुआवजे की नौबत ही न आए। बात सिर्फ एक हवाईअड्डे की या एक शहर की नहीं है। देशभर में रोजाना हादसे होते हैं, जिन्हें थोड़ी-सी गंभीरता दिखाते हुए टाला जा सकता है। अब तो यह हर साल का किस्सा बन गया है कि सर्दियों के मौसम के बाद जैसे ही गर्मी बढ़ती है, पानी की किल्लत शुरू हो जाती है। अधिकारी बड़े-बड़े दावे करते हैं, लेकिन जनता की दिक्कतें कम होने का नाम नहीं लेतीं। यह नालियों, तालाबों, जलाशयों, झीलों आदि की सफाई करने के लिए उपयुक्त समय भी होता है। इस दौरान मैनहोल की सफाई, मरम्मत करनी चाहिए। उनके ढक्कन आदि बदलने चाहिएं। सार्वजनिक इमारतों की दीवारों, छतों का निरीक्षण करना चाहिए। जहां कहीं बिजली के तारों से लोगों की सुरक्षा को खतरा हो, तुरंत जरूरी कदम उठाने चाहिएं। दुर्भाग्य की बात है कि ऐसा होता नहीं है।  

जैसे ही मानसून शुरू होता है, सड़कें दरिया बन जाती हैं। कहीं नालियां उफनती हैं, कहीं मैनहोल गंदगी उगलते हैं। ऐसे हालात में कोई व्यक्ति सड़क पार करे तो अपने जोखिम पर करे। आम आदमी नाली में गिर जाए और टांग टूट जाए, पानी से लबालब गड्ढे में गिरे और माथा फूट जाए तो वह शुक्र मनाता है कि इतने में ही बला टल गई! हर साल कितने ही लोग ऐसी जगहों पर गिरने, डूबने, करंट लगने जैसी घटनाओं में जान गंवा देते हैं। जब मीडिया ऐसे मामलों को उठाता है तो संबंधित अधिकारियों को 'कुछ सक्रियता' दिखानी पड़ती है। वे एक-दो कर्मचारियों को निलंबित करने का आदेश देते हैं। मुआवजे की घोषणा कर दी जाती है। नेता आरोप-प्रत्यारोप में लग जाते हैं। मामला ज्यादा तूल पकड़ता है तो जांच कमेटी बना दी जाती है। थोड़ी सख्ती दिखाई जाती है। दो-चार दिन बाद सबकुछ उसी पुराने ढर्रे पर चलने लगता है। कुछ समय बाद निलंबित कर्मचारी बहाल हो जाते हैं। फिर एक और हादसे का इंतजार होता है! देश में आम आदमी की जान कितनी सस्ती है! जिम्मेदारों को थोड़ी तो संवेदनशीलता दिखानी चाहिए। कहीं गड्ढों में गिरकर लोग जान गंवा रहे हैं, कहीं करोड़ों के पुल ताश के महल की तरह गिर रहे हैं, कहीं आते-जाते लोग करंट के शिकार हो रहे हैं, कहीं छतें गिर रही हैं, कहीं लोग अग्निकांड में काल के ग्रास बन रहे हैं ... समय रहते ऐसे हादसों को टालने के लिए कदम क्यों नहीं उठाए जाते? क्या इस बात की गुप्त प्रतिज्ञा कर रखी है कि आग लगने पर ही कुआं खोदेंगे? यह उदासीनता, यह निष्क्रियता, यह लापरवाही, आखिर क्यों? क्या इसलिए, क्योंकि ऐसे ज्यादातर हादसों में जान तो आम आदमी की जाएगी? प्राय: लोग शिकायत करते हैं कि वे सड़क का बल्ब बदलने के लिए भी कहें तो कर्मचारी उसमें कई दिन लगा देते हैं। हां, बात जब 'दरियादिली' की हो तो वह भी खूब दिखाते हैं ... कई शहरों में चिलचिलाती धूप में सड़क की बत्तियां घंटों जलाकर प्रकाश की उत्तम व्यवस्था कर देते हैं! यह रवैया बदलना होगा। जनता को आवाज उठानी होगी। जनप्रतिनिधियों से सवाल करने होंगे। सरकार को सक्रियता दिखानी होगी। संबंधित अधिकारियों-कर्मचारियों की जवाबदेही सुनिश्चित करनी होगी। दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई कर नजीर पेश करनी ही होगी। हादसे को टालने की कोशिश होनी चाहिए। उसमें किसी की भी जान नहीं जानी चाहिए।

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