इन हादसों को कैसे टालें?

समय रहते कुछ बिंदुओं की ओर ध्यान देते तो अप्रिय घटनाओं को होने से टाल सकते थे

जिस जगह इतने घंटे बिता दिए, वहां कुछ समय और अनुशासन बनाए रखेंगे तो क्या बिगड़ जाएगा?

उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में सत्संग के दौरान भगदड़ मचने से कई लोगों की मौत होने की घटना अत्यंत दु:खद एवं दुर्भाग्यपूर्ण है। इस कार्यक्रम में जितनी भीड़ उमड़ी, क्या जिला प्रशासन और आयोजकों ने इस बिंदु को ध्यान में नहीं रखा था कि इतने लोगों को कैसे नियंत्रित करेंगे? आज कार्यक्रमों में ज्यादा लोगों को बुलाना कोई मुश्किल काम नहीं है, खासकर धार्मिक कार्यक्रमों में। सोशल मीडिया पर एक अपील करेंगे तो धर्मप्रेमी जनता आ जाएगी और अपनी ओर से कुछ सहयोग भी करेगी। मुश्किल है- पर्याप्त इंतजाम करना और बड़ी संख्या में उमड़े लोगों को अनुशासन में रखना। हाल के वर्षों में सामाजिक या धार्मिक कार्यक्रमों में जितने भी बड़े हादसे हुए, उनका विश्लेषण किया जाए तो पाएंगे कि समय रहते कुछ बिंदुओं की ओर ध्यान देते तो अप्रिय घटनाओं को होने से टाल सकते थे। प्राय: आयोजकों का ध्यान इस बात पर होता है कि कार्यक्रम को भव्य और यादगार बनाया जाए ... इसमें ज्यादा से ज्यादा लोग आएं। ऐसा सोचना ग़लत भी नहीं है। जब कार्यक्रम के आयोजन पर संसाधन खर्च हो रहे हैं तो उसका लाभ ज्यादा लोगों को जरूर मिलना चाहिए, लेकिन इसमें सुरक्षा के पहलू को नहीं भूलना चाहिए। कार्यक्रम से पहले और बाद में मौसम कैसा रहेगा, आने-जाने के लिए कितने रास्ते हैं, बिजली-पानी की कैसी व्यवस्था है, बिजली के तार और उपकरण किस हालत में हैं, जहां आयोजन हो रहा है वहां जमीन कैसी है, अगर छत पर आयोजन कर रहे हैं या लोग किसी भवन की छत पर बैठेंगे तो वह उनका भार वहन करने की स्थिति में है या नहीं, अग्निशमन यंत्रों की कैसी व्यवस्था है, एंबुलेंस/चिकित्सा व्यवस्था कैसी है, अगर गैस सिलेंडर/स्टोव आदि का उपयोग हो रहा है तो आयोजन स्थल से कितनी दूरी है, कार्यक्रम संपन्न होने के बाद जब लोग वापस जाएंगे तो निकलने के लिए जगह कितनी है, वाहनों को कैसे निकाला जाएगा, आस-पास कहीं ट्रांसफार्मर, गहरा जलस्रोत, रेल की पटरियां तो नहीं हैं ... ये कुछ बिंदु हैं, जिन पर विचार करते हुए कार्यक्रम की योजना बनाएं तो हादसों को काफी हद तक टाल सकते हैं।

हमारे देश में ऐसे कई हादसे हो चुके हैं, जिनमें कुछ लोगों की जल्दबाजी/भगदड़/धक्का-मुक्की अन्य लोगों की जान पर भारी पड़ी। श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और नेपाल में भी भगदड़ से संबंधित बड़े हादसे हो चुके हैं। कुछ लोग इतनी जल्दबाजी क्यों करते हैं? वे भगदड़ क्यों मचाते हैं? यह निश्चित रूप से अनुशासन की कमी को भी दर्शाता है। अगर स्कूलों को ही देखें तो ऐसे कई विद्यार्थी हैं, जो छुट्टी की घंटी बजने से ठीक पहले बिल्कुल 'हाई अलर्ट' पर रहते हैं। उनमें सबसे पहले स्कूल से 'निकल भागने' की प्रवृत्ति होती है। बसों और ट्रेनों में भी ऐसे बहुत लोग मिल जाएंगे, जो उस वाहन के अंतिम गंतव्य तक पहुंचते ही हड़बड़ी मचा देते हैं, सबसे पहले निकल भागने के लिए धक्का-मुक्की करने पर उतर आते हैं। सिनेमा घरों में जैसे ही फिल्म पूरी होती है, कुछ लोग इस ताक में रहते हैं कि वे सबसे पहले दरवाजे तक पहुंचें और गजब की फुर्ती दिखाते हुए बाहर निकल जाएं। शायद इससे उन्हें यह एहसास होता है कि उन्होंने कोई किला फतह कर लिया या किसी कैदखाने से जान छुड़ा ली! जिस जगह इतने घंटे बिता दिए, वहां कुछ समय और अनुशासन बनाए रखेंगे तो क्या बिगड़ जाएगा? बच्चों को स्कूली पढ़ाई के दौरान ही यह बात समझानी होगी कि जल्दबाजी/भगदड़/धक्का-मुक्की से समय की बचत नहीं होती, बल्कि अपनी या किसी और की जान संकट में होती है। भारत में किसी भी कार्यक्रम में, जहां बड़ी संख्या में लोग इकट्ठे हों, उनका ध्यान इस ओर दिलाना चाहिए कि जाने-अनजाने में कुछ लम्हों की जल्दबाजी बड़े हादसे में तब्दील हो सकती है, लेकिन हम अपने विवेक एवं अनुशासन से इसे टालकर आयोजन को सुंदर बना सकते हैं।

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