अनुशासन और शिक्षा के नाम पर एक स्कूली बच्चे के साथ शारीरिक हिंसा करने से जुड़े मामले की सुनवाई करते हुए छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने एक शिक्षिका की याचिका को खारिज करते हुए जो टिप्पणी की, वह ऐसे सभी मामलों में नज़ीर है। शिक्षकों को इसका एक बार अध्ययन जरूर करना चाहिए। न्यायालय ने सत्य कहा कि 'बच्चे बहुमूल्य राष्ट्रीय धरोहर हैं, उनका पालन-पोषण पूरी कोमलता के साथ किया जाना चाहिए, न कि क्रूरता के साथ।' अगर अनुशासन और शिक्षा के नाम पर उनकी पिटाई की जाती है तो इसे क्रूरता ही मानना चाहिए। हर साल ऐसी कई घटनाएं होती हैं, जिनसे पता चलता है कि किसी शिक्षक ने गुस्से में आकर छात्र की पिटाई कर दी, जिससे वह या तो गंभीर रूप से घायल हो गया या उसके प्राण-पखेरू उड़ गए! बेशक कोई शिक्षक नहीं चाहता कि उसके माथे पर हत्यारा होने का कलंक लगे, वह भी अपने ही छात्र का! कई बार क्षणिक भावावेश, घरेलू मामले या जीवन की किसी अन्य समस्या के कारण कुछ शिक्षक अपना गुस्सा छात्रों पर उतारते हैं। वहीं, कुछ शिक्षक पिटाई के पीछे तर्क देते हैं कि इससे छात्र अनुशासित रहते हैं और पढ़ाई की ओर ध्यान देते हैं। हालांकि यह कहना सरासर गलत है। अगर डंडे के जोर से ही छात्र अनुशासित होते तो आज़ादी के इतने दशकों बाद लगभग पूरा देश ही बहुत अनुशासित हो गया होता, चूंकि ज्यादातर लोगों ने स्कूलों में कभी-न-कभी ऐसी सख्ती का सामना जरूर किया है। पिटाई के डर से पढ़ाई की ओर ध्यान देने का दावा भी पूरी तरह काल्पनिक है। क्या जिन बच्चों की स्कूलों में बहुत पिटाई हुई थी, वे सब-के-सब उच्च कोटि के वैज्ञानिक, चिंतक या दार्शनिक बन गए?
सच्चाई यह है कि बहुत ज्यादा पिटाई करने वाले शिक्षक का उसके छात्र मन से आदर नहीं करते। जब कभी ऐसे शिक्षक का तबादला हो जाता है या उसके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई होती है तो छात्र अत्यंत हर्षित होते हैं। इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं। कई बच्चे तो ऐसे शिक्षक से परेशान होकर दूसरे स्कूल में दाखिला ले लेते हैं या पढ़ाई छोड़ देते हैं। अब सोशल मीडिया पर ऐसे मामलों को जोर-शोर से उठाए जाने के कारण अभिभावकों, छात्रों और शिक्षकों में जागरूकता आई है। जब कभी पता चलता है कि किसी शिक्षक ने अपने छात्र की बेरहमी से पिटाई कर दी, तो उसके खिलाफ मामला दर्ज करवा दिया जाता है। प्राय: प्राइवेट स्कूल वाले अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए उस शिक्षक को नौकरी से तुरंत निकाल देते हैं। इस घटना की वजह से उसे दूसरी स्कूल में नौकरी मिलना मुश्किल होता है। वह छात्र के अभिभावक की ओर से दर्ज मुकदमे का सामना करता है, सो अलग। दो दशक पहले स्कूलों, खासकर राजस्थान के कई सरकारी स्कूलों में छात्रों की बहुत पिटाई की जाती थी। चूंकि तब सोशल मीडिया नहीं होता था। मुख्य धारा के मीडिया की पहुंच भी सीमित थी। उस दौरान कई शिक्षक अपनी विद्वता के बजाय पिटाई में 'महारत' के लिए जाने जाते थे। वे प्रार्थना-सभा में ही अपना 'हुनर' दिखाना शुरू कर देते थे। जब दिन की शुरुआत ही इतने 'भयानक' तरीके से होगी तो बच्चे उस स्कूल से कितना लगाव महसूस करेंगे और पढ़ाई की ओर कितना ध्यान दे पाएंगे? जब छुट्टी की घंटी बजती तो सभी छात्र यूं भागते थे, गोया उन्होंने बड़ी मुश्किल से अपनी जान छुड़ाई है। कुछ छात्र तो लगातार पिटाई और अपमान से परेशान होकर मानसिक समस्याओं का सामना करने लगते थे। उनके सामने ऐसा कोई विकल्प नहीं होता था कि वे इस मुसीबत से निजात पा सकें। जब वे काफी कोशिशों के बावजूद विषय को ठीक तरह से नहीं समझ पाते थे और आए दिन उनकी पिटाई होती थी, तो आखिरकार यह सोचकर पढ़ाई में उनकी दिलचस्पी कम होने लगती थी कि मार तो पड़नी ही है, चाहे मैं पढ़ूं या न पढ़ूं! स्कूलों में अनुशासन होना चाहिए। अगर बच्चे वहां अनुशासन नहीं सीखेंगे तो कहां सीखेंगे? लेकिन क्या इसके लिए मारपीट करना ही एकमात्र तरीका है? शिक्षक बनने से पहले प्रशिक्षण के दौरान बच्चों को अनुशासित करने की अनेक मनोवैज्ञानिक विधियों के बारे में बताया जाता है। उन पर अमल करना चाहिए। स्कूली बच्चों का मन बहुत कोमल होता है। उनके साथ मार-कुटाई का बर्ताव ठीक नहीं है। पाठशाला ऐसी जगह होनी चाहिए, जो देश के लिए श्रेष्ठ नागरिक तैयार करे, न कि ऐसी जगह, जहां कदम रखने से बच्चे भयभीत हों। 'पाठशाला' 'पिटाईशाला' नहीं बननी चाहिए।