बांग्लादेश में शेख हसीना के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर देश छोड़ देना उनकी पार्टी अवामी लीग के लिए बहुत बड़ा झटका है। किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि चंद प्रदर्शनकारियों के आक्रोश की चिन्गारी ऐसी ज्वाला का रूप धारण कर लेगी, जिसके बाद बांग्लादेशी प्रधानमंत्री को अपना पद छोड़ना पड़ेगा! कभी लोकप्रियता के शिखर पर रहीं शेख हसीना अपने पिता शेख मुजीबुर्रहमान की विरासत को ठीक तरह से संभाल नहीं पाईं। हालांकि उन्होंने लंबी सियासी पारी खेली और इस पड़ोसी देश के उन राजनेताओं में शुमार की जाती हैं, जिन्हें हवा का रुख भांपना आता है। जब आरक्षण विरोधी आंदोलन के बाद प्रदर्शनकारी दोबारा लामबंद होकर शेख हसीना के इस्तीफे की मांग पर अड़ गए तो उन्होंने पद छोड़ देना ही बेहतर समझा। इस समय वहां जैसे हालात हैं, उनको ध्यान में रखते हुए शेख हसीना का देश छोड़ देने का फैसला भी रणनीति का हिस्सा प्रतीत होता है। अगर वे बांग्लादेश में रहतीं तो उनकी जान को खतरा था। वे भविष्य में 'सही समय' देखकर फिर स्वदेश लौट सकती हैं, जैसा कि कई देशों में नेतागण लौटते रहे हैं और नई सियासी पारी का आगाज करते रहे हैं। बांग्लादेश से जो तस्वीरें आ रही हैं, वे कुछ खास संकेत देती हैं। जब जनवरी 1972 में पाकिस्तानी जेल से रिहा होकर शेख मुजीबुर्रहमान बांग्लादेश आए थे तो उनका स्वागत महानायक की तरह किया गया था। लोग उनकी एक झलक पाने के लिए बेताब थे। जनता पूरे मुक्ति संग्राम के दौरान शेख मुजीबुर्रहमान और अवामी लीग के झंडे के लिए जान देने को तैयार थी। वहीं, साल 2024 में ऐसा क्या हुआ कि जनता शेख हसीना के चित्र और उनकी पार्टी के झंडे को देखते ही भड़क रही है, मुजीबुर्रहमान की प्रतिमाएं तोड़ रही है? हसीना लगभग डेढ़ दशक से बांग्लादेश की सत्ता में थीं। इतनी लंबी अवधि में सत्ताविरोधी लहर का पैदा होना स्वाभाविक है। इसके अलावा बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई, नौकरशाही की मनमानी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे थे। रही-सही कसर आरक्षण के मुद्दे ने पूरी कर दी। हालांकि बांग्लादेश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण आदेश देते हुए कह दिया था कि सार्वजनिक क्षेत्र की 93 प्रतिशत नौकरियों में योग्यता के आधार पर भर्ती की जानी चाहिए।
क्या शेख हसीना यह नहीं भांप पाईं कि आरक्षण विरोधी आंदोलन उनकी कुर्सी ले लेगा? क्या उनके सलाहकारों ने उन्हें सही समय पर सही राय नहीं दी? क्या खुफिया एजेंसियों ने उन्हें इस बात को लेकर नहीं चेताया कि जनता के अंदर आक्रोश का लावा पक रहा है, जो किसी भी समय फूट सकता है? क्या जनता को भड़काने के लिए विदेशी ताकतों ने भी हिस्सा डाला? जैसे ही शेख हसीना के इस्तीफे की खबर सोशल मीडिया पर आई, पाकिस्तानी न्यूज एंकरों के चेहरे 'चमक' उठे। उनके कथित विश्लेषक अपनी पूरी ताकत लगाकर अवामी लीग को कोसने लगे, चूंकि इसी पार्टी ने साल 1971 में पाकिस्तान के शिकंजे से आज़ादी हासिल करने के लिए मुक्ति संग्राम के योद्धाओं को संगठित किया था। अब शेख हसीना के यूं सत्ता गंवाने में उन्हें अपनी जीत नजर आ रही है। भारत के लिए भी यह समय चुनौतीपूर्ण है। अगर बांग्लादेश में लंबी अवधि तक अशांति का माहौल रहा तो घुसपैठ को बढ़ावा मिल सकता है। ऐसे में बीएसएफ और सीमा की सुरक्षा से जुड़ीं अन्य एजेंसियों को बहुत सतर्क रहना होगा। बीएसएफ ने पहले ही अपनी इकाइयों को 'हाई अलर्ट' जारी कर दिया है। अब बांग्लादेश में सत्ता का जो प्रयोग होने जा रहा है, वह नया नहीं है। वहां लोकतंत्र का बीज अंकुरित हो ही रहा था, तब 15 अगस्त, 1975 को सेना ने तख्ता-पलट कर दिया था। उसके बाद भी सैन्य अधिकारी किसी-न-किसी रूप में सत्ता में भागीदार रहे। शेख हसीना के देश छोड़कर चले जाने के बाद सेना प्रमुख जनरल वकार-उज़ ज़मान ने यह कहते हुए अंतरिम सरकार बनाने की घोषणा की कि मैं पूरी ज़िम्मेदारी ले रहा हूं। अब बांग्लादेश की अगली सरकार कैसी होगी? क्या वह लोगों के आक्रोश को शांत कर पाएगी? क्या वह उन्हें मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने के साथ बेहतर जीवन स्तर दे पाएगी? कहीं जनरल वकार दूसरे ज़िया-उल हक़ तो नहीं बन जाएंगे, जिन्होंने पाकिस्तान में 90 दिनों में चुनाव कराने का वादा कर सत्ता छीनी थी, लेकिन लगभग एक दशक तक जनता की छाती पर मूंग दलते रहे थे? इन सवालों के जवाब जो भी हों, लेकिन इस समूचे घटनाक्रम ने एक बार फिर बांग्लादेश में लोकतंत्र की जड़ें हिला दीं। उसे ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया, जहां से आगे बढ़ने का रास्ता बहुत जोखिम भरा है।