भाजपा सांसद अनिल सुखदेव बोंडे ने राज्यसभा में 'कल्याणकारी योजनाओं और जनसंख्या वृद्धि' का मुद्दा उठाकर एक ऐसी समस्या की ओर संकेत किया है, जिसके बारे में नेतागण जानते तो हैं, लेकिन इस पर बात कम ही करते हैं। आज जब हमारे देश की जनसंख्या 141 करोड़ से ज्यादा हो चुकी है, युवाओं को रोजगार के पर्याप्त अवसर नहीं मिल रहे, शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन जैसी सुविधाओं में उचित गुणवत्ता नहीं मिल रही है तो हमें इन सबकी जड़ में क्यों नहीं जाना चाहिए? आज़ादी के बाद हर सरकार ने कल्याणकारी योजनाओं पर बहुत संसाधन खर्च किए। उनमें भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन, सरकारी तंत्र की सुस्ती समेत कई समस्याएं अपनी जगह रहीं, लेकिन इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि सरकार ने अपनी शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार जनकल्याण की कोशिशें कीं। उन योजनाओं का लाभ कितने लोगों तक पहुंचा और उनके जीवन में क्या बदलाव आया, एक बार इस पर भी विचार करना चाहिए। 15 अगस्त का दिन भी आने वाला है। कम से कम इसी बहाने हमें अपनी प्रगति व मौजूदा स्थिति का मूल्यांकन कर लेना चाहिए। जब देश को आज़ादी मिली थी, तब भी बेरोजगारी बहुत बड़ी समस्या थी, आज भी है। तब भी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी थी, आज भी है। आम आदमी के लिए उसके बजट में पोषक तत्त्वों से युक्त भोजन की व्यवस्था करना तब भी टेढ़ी खीर थी, आज भी है। तब सरकारी स्कूल गिनती के थे, जिनमें मूलभूत सुविधाओं का घोर अभाव था। आज सरकारी स्कूल तो काफी हैं, लेकिन उनमें सुविधाओं की कमी है। बसों और ट्रेनों में तब भी खूब भीड़ उमड़ती थी, आज भी उनमें तिल रखने की जगह नहीं मिलती। कुछ शहरों में तो हर सुबह स्कूली बच्चों से लेकर आम सवारियों तक को वाहनों में इस तरह 'भरकर' ले जाया जाता है, जिससे बड़ी दुर्घटना की आशंका रहती है।
इन सभी समस्याओं की जड़ में अत्यधिक जनसंख्या वृद्धि भी है। अगर सरकारों ने चार-पांच दशक पहले दूरदर्शिता दिखाते हुए इस मुद्दे की ओर ध्यान दिया होता और कुछ ठोस कदम उठाए होते तो आज नौजवानों के सामने रोजगार का ऐसा संकट नहीं होता। दुनिया के कई देश, जिन्होंने पहले और दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका झेली, वे आज अपने नागरिकों को बेहतरीन सुविधाएं दे पा रहे हैं। वहां रोजगार का ऐसा संकट नहीं है, क्योंकि जनसंख्या संतुलित है। भारत में सरकार राशन बांटती गई, लेकिन लोगों को पर्याप्त पोषण नहीं मिला। अस्पताल खोलती गई, दवाइयों के भंडार बढ़ाती गई, लेकिन स्वास्थ्य की स्थिति आज भी बहुत अच्छी नहीं है। सरकार मकान बना-बनाकर देती रही, लेकिन आज भी बहुत लोग बेघर हैं। सरकार ने यथाशक्ति सरकारी नौकरियां भी दीं, लेकिन बेरोजगारों की तादाद बढ़ रही है। आज छोटे शहरों से लेकर महानगरों तक कई लोग ऐसे मकानों में रहने को मजबूर हैं, जहां साफ हवा तक नहीं पहुंच सकती। इससे उन्हें बीमारियां होने का खतरा रहता है। अब डिजिटलीकरण से कुछ राहत जरूर मिली है, अन्यथा पहले सरकारी दफ्तरों से लेकर टिकट खिड़की तक लोगों की लंबी-लंबी कतारें लगी होती थीं। हर जगह भीड़, धक्के और कम गुणवत्ता की सुविधाएं पाकर देश का युवा सोचता है- 'यह ज़िंदगी जीने के लिए मिली है या काटने के लिए मिली है?' ऐसे मामलों में कई पार्टियां सिर्फ सरकार को कोसकर काम चला लेती हैं, क्योंकि जनसंख्या वृद्धि पर बात करेंगी तो वोटबैंक छिटकने का डर रहेगा! हाल के वर्षों में जनता में जागरूकता का विस्तार हुआ है, लेकिन आज भी ऐसे कई परिवार हैं, जिनमें छह या इससे ज्यादा बच्चे हैं। तो कैसे होगा जनकल्याण? सरकार सुविधाएं बढ़ाएगी, उससे पहले ही जनसंख्या काफी बढ़ जाएगी। इस बीच, जिन परिवारों में एक या दो बच्चे हैं और आर्थिक स्थिति अच्छी होने से आयकर समेत अन्य टैक्स भी देते हैं, वे सोचते हैं- 'हमारा जन्म तो बस टैक्स देने के लिए हुआ है, जबकि सुविधाएं नाममात्र की मिल रही हैं!' सरकार कल्याणकारी योजनाएं जरूर चलाए। इसके साथ जनसंख्या संतुलन के लिए कुछ ठोस कदम भी उठाए। यह काम जल्दबाजी में नहीं हो सकता। इसे कई चरणों में धीरे-धीरे पूरा करना होगा। जिन परिवारों का आकार 'संतुलित' है, उन्हें प्रोत्साहन मिलना चाहिए। शिक्षित, स्वस्थ और विकसित भारत बनाने के लिए जनसंख्या का 'संतुलित' होना बहुत जरूरी है। सरकार को इसके लिए कानूनी उपायों पर विचार करना चाहिए।