भारतीय निशानेबाज मनु भाकर का यह कहना कि 'खेलों से भी अच्छी जिंदगी बन सकती है', कई लोगों की रूढ़िवादी सोच को बदलने की कोशिश है। मनु ने युवाओं को खेलकूद को करियर विकल्प के रूप में अपनाने की सलाह देकर उन्हें बड़े सपने देखने के लिए प्रेरित किया है, जिसकी आज बहुत जरूरत है। भारत में स्कूली दिनों से ही विद्यार्थियों की सोच ऐसी बना दी जाती है कि उन्हें बड़े होकर सिर्फ सरकारी नौकरी हासिल करना है। उन्हें खेलकूद के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं मिलता है। इस साल पेरिस ओलंपिक में भाग लेने वाले देशों और उनके पदकों की सूची देखें तो हम 71वें स्थान पर हैं! वहीं, उ. कोरिया, किर्गिस्तान, आर्मीनिया, चिली, द. अफ्रीका, अल्जीरिया जैसे देश भी हमसे ऊपर हैं। भारत 141 करोड़ से ज्यादा आबादी का देश और दुनिया की 5वीं बड़ी अर्थव्यवस्था है। इसके बावजूद हम पदकों की दौड़ में बहुत पीछे क्यों रह गए? एक राष्ट्र के तौर पर हमें इस पर जरूर विचार करना चाहिए। मनु भाकर ने खेलों को करियर विकल्प के तौर पर चुनने का आह्वान कर युवाओं को उम्मीद की एक किरण जरूर दिखाई है, लेकिन कड़वी हकीकत यह है कि पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। खेलकूद के लिए अच्छे और पर्याप्त मैदान नहीं हैं। कई जगह सार्वजनिक उद्यान जरूर हैं, वे भी अव्यवस्था और अतिक्रमण की भेंट चढ़ रहे हैं। ऐसे में एक साधारण आर्थिक पृष्ठभूमि वाले परिवार का बच्चा यह कहे कि 'मैं खेलकूद के क्षेत्र में जाना चाहता हूं', तो सब लोग यही प्रतिक्रिया देंगे कि 'पढ़ ले भाई, इन बातों में कुछ नहीं रखा।'
परिवारों की आकांक्षाएं होती हैं और चिंताएं भी होती हैं। आकांक्षाएं ये कि बच्चा पढ़ जाएगा तो भविष्य में कुछ तो 'ठीक-ठाक' काम कर लेगा ... उसकी सरकारी नौकरी लग जाएगी तो ज़िंदगी आसान हो जाएगी ... रिश्तेदारों के बीच रुतबा रहेगा ... पड़ोसी मान-सम्मान करेंगे। चिंताएं ये कि अगर खेलकूद में कुछ खास नहीं कर पाया तो भविष्य में क्या करेगा? सोशल मीडिया पर कई पूर्व खिलाड़ियों के दर्दनाक किस्से सुनने को मिलते हैं, जिन्हें गुजारा करने के लिए मेडल बेचकर मजदूरी करनी पड़ी। खिलाड़ी बनने में जोखिम कम नहीं है। मामूली-सी वजह पूरी मेहनत पर पानी फेर सकती है। विनेश फोगाट का वजन 100 ग्राम ज्यादा होने के कारण उन्हें अयोग्य ठहरा दिया गया था। खेलकूद में चोट लगती रहती है, जिससे दिग्गज खिलाड़ी भी आशाजनक प्रदर्शन नहीं कर पाते। सरकारी व सामाजिक स्तर पर प्रोत्साहन मिलता है, लेकिन पदक जीतने के बाद। ऐसे खिलाड़ियों के बारे में सबने पढ़ा होगा कि वे मुकाबले से पहले संसाधनों की किल्लत का सामना कर रहे थे। उस समय उनकी ओर सहयोग का हाथ बढ़ाने वाले कितने लोग होते हैं? जो खिलाड़ी आज पारिवारिक स्तर पर आर्थिक तंगी का सामना कर रहा है, जिसके पास पहनने के लिए अच्छे जूते नहीं, पर्याप्त पोषण के लिए अच्छी गुणवत्ता का भोजन नहीं, बढ़िया साजो-सामान नहीं ... अगर उसे पहले ही सरकारी व सामाजिक स्तर पर पर्याप्त सहयोग मिल जाए तो प्रदर्शन यकीनन बेहतर होगा। एक और कड़वी बात यह है कि समाज में खेलों को गंभीरता से लिया ही नहीं जाता। उन्हें सिर्फ कुछ समय के मन-बहलाव का जरिया समझा जाता है। कई लोग यह कहते मिल जाते हैं कि 'खेलों में क्या रखा है, घर पर काम में हाथ बंटाओ, अपनेआप व्यायाम हो जाएगा!' वास्तव में वे खेलकूद की भावना से अपरिचित हैं। सिर्फ पसीना बहाने के लिए खेलकूद में भाग नहीं लिया जाता। इससे मानसिक स्वास्थ्य भी अच्छा होता है। खिलाड़ियों में एकता व सौहार्द की भावना मजबूत होती है। खिलाड़ी सहयोग व नेतृत्व कौशल जैसे गुण सीखता है। मनु भाकर के शब्दों में - 'मैं विफलता के बाद सफलता के स्वाद को जानती हूं। खेलों की यही खूबसूरती है। आप एक प्रतियोगिता में हारते हैं तो दूसरी में जीतते हैं, लेकिन ऐसा तभी होगा, जब आप लगातार कड़ी मेहनत करना जारी रखेंगे।’ कोई खिलाड़ी मेडल न भी लाए, उसमें जूझने का जज्बा आ ही जाता है। अगर बच्चों को स्कूली दिनों से ही खेलकूद के लिए प्रेरित करेंगे तो वे भविष्य में कई शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से सुरक्षित रहेंगे।