प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ‘मन की बात’ कार्यक्रम में एक लाख युवाओं को राजनीति में शामिल करने संबंधी फैसले का उल्लेख किया जाना स्वागत-योग्य है। उन्होंने बिना किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले इन युवाओं के राजनीति में शामिल होने के लिए आह्वान तो स्वतंत्रता दिवस के भाषण में ही कर दिया था। अगर इस विचार पर गंभीरता से काम हुआ तो यह भारतीय राजनीति की दशा और दिशा, दोनों को बदल सकता है।
हर युवा को राजनीति के बारे में पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए। उनमें से भी जो देशसेवा करना चाहते हैं, उन्हें सक्रिय राजनीति में आना चाहिए। हालांकि यह सब इतना आसान नहीं है। आजादी के बाद जब देश में चुनावी राजनीति का पहिया आगे बढ़ा तो लोगों ने खूब उत्साह दिखाया, लेकिन उसके साथ कई विकृतियां भी जुड़ती गईं।
जातिवाद, सांप्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रवाद जैसे हथकंडे सत्ता हासिल करने के आसान टोटके बन गए थे। आज भी कई नेता इन्हें आजमाते रहते हैं, उन्हें कहीं-कहीं कामयाबी मिल जाती है। ये सब खराबियां अपनी जगह थीं। इनके अलावा राजनीति में परिवारवाद, धनबल और बाहुबल के प्रयोग ने लोकतंत्र को बहुत नुकसान पहुंचाया है। पुराने जमाने में जिस तरह बादशाह का बेटा बादशाह बनता था, उसी तरह विधायकों-सांसदों की संतानें सत्ता में हिस्सेदारी पाने लगीं।
चुनाव प्रचार इतना महंगा हो गया कि आम आदमी तो उस स्तर पर मुकाबला करने के बारे में सोच ही नहीं सकता। अस्सी और नब्बे के दशक में कई बाहुबली नेताओं का दबदबा था, जो लठैतों के जोर पर आम जनता को धमकाते और बूथों पर कब्जा कर लेते थे। हालांकि समय के साथ बाहुबली नेताओं की पकड़ ढीली हुई। चुनाव आयोग और अदालतों की सख्ती के कारण उनकी मनमानी काफी हद तक बंद हो गई।
राजनीति एक ऐसा माध्यम है, जहां कोई व्यक्ति सच्ची निष्ठा और पूर्ण मनोयोग से काम करे तो वह बहुत सकारात्मक बदलाव ला सकता है। विडंबना है कि आज 'राजनीति' को बहुत नकारात्मक सन्दर्भ में लिया जाता है। हालांकि इसके लिए कुछ नेताओं के कारनामे जिम्मेदार हैं। इसी देश में महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, सरदार वल्लभभाई पटेल और लाल बहादुर शास्त्री जैसे महान राजनेता हुए, जिन्होंने अपना पूरा जीवन देशसेवा के लिए समर्पित कर दिया था।
धीरे-धीरे राजनीति में आदर्शों की जगह पदलिप्सा और तपस्या की जगह लोभ ने ले ली। ऐसे-ऐसे 'नेता' विधानसभा और संसद पहुंच गए, जिन्होंने जनता की भलाई के वादे तो बड़े-बड़े किए, लेकिन वे 'मैं और मेरा' से उबर नहीं पाए। राजनीति में भ्रष्टाचार ने भी लोगों को बहुत निराश किया। इससे नेताओं पर विश्वास कमजोर हुआ।
खासकर युवाओं के मन में यह बात बैठ गई कि देश की राजनीति में बदलाव लाना संभव नहीं है। वे हालात को लेकर शिकायत तो करते हैं, लेकिन बदलाव लाने के लिए कुछ कर नहीं पाते। न उनके पास इतने संसाधन हैं कि खर्चीली चुनावी राजनीति में उतरें और न ही लोग जाति, सांप्रदायिकता और अन्य सियासी समीकरणों से ऊपर उठकर उनकी बात सुनना चाहेंगे। देश का युवा करे तो क्या करे?
जब कभी बोर्ड परीक्षाओं के नतीजे आते हैं तो ज्यादातर प्रतिभाशाली विद्यार्थी यही कहते हैं कि वे बड़े होकर डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस या कोई सरकारी अधिकारी बनना चाहेंगे। शायद ही कोई विद्यार्थी यह कहता है कि मैं राजनीति में जाकर सेवा करूंगा, देश के हालात बेहतर बनाऊंगा! आखिर क्यों? इसकी एक वजह तो सरकारी नौकरियों का अतिमहिमा-मंडन है।
वहीं, राजनीतिक परिदृश्य से जुड़ी नकारात्मकता भी युवाओं को इसमें आने से हतोत्साहित करती है। वह सोचता है कि यह क्षेत्र उसी के लिए है, जिसके पास खूब धन हो, जिसके परिवार की राजनीतिक पृष्ठभूमि हो तथा जाति, सांप्रदायिकता और अन्य सियासी समीकरण पक्ष में हों!
इस सोच को बदलना होगा। ऐसे सेवाभावी और प्रतिभाशाली युवाओं को आगे लाना होगा, जिनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं है। राजनीति को परिवारवाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता से मुक्त करने के लिए बहुत जरूरी है कि जनता भी ऐसे युवाओं को प्रोत्साहित करे।