हिंदी बनेगी विश्व-भाषा

प्राचीन समय से हिन्दी सम्पूर्ण भारत की संपर्क भाषा रही है

हिन्दी में जोड़ने की अकूत क्षमता है

दिनेश प्रताप सिंह 'चित्रेश’
मोबाइल- 7379100261

भारत एक बहुभाषी देश है| देश के संविधान की आठवीं अनुसूची में ही बाईस भाषाएं शामिल  हैं| इसके अलावा सैकड़ों बोलियॉं हैं, जो भाषा का ही लोक व्यवहृत रूप हैं| भाषाएं अभिव्यक्ति का माध्यम तो होती ही हैं; चिन्तन, विचार और संस्कार के संवहन का कार्य भी करती हैं| सभी भाषाएं महत्वपूर्ण हैं| सबके अपने आध्यात्मिक और भौतिक ज्ञान के कोश हैं, यह भाषा से ही जीवंत, प्राणवान, ऊर्जस्वित और गतिमान हैं| किन्तु इन बहु भाषाओं के बीच सदैव एक संपर्क भाषा की आवश्यकता रही है, जो समस्त क्षेत्रीय भाषा-भाषियों को एक सूत्र में पिरोकर उनके आचार-विचार, मान्यता, संस्कार, ज्ञान-विज्ञान और पंथिक चेतना को एकीकृत करके राष्ट्रीय चेतना का विकास कर सके|    

प्राचीन समय से हिन्दी सम्पूर्ण भारत की संपर्क भाषा रही है, इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण यह है कि केरल के नम्बूदरीपाद ब्राह्मण आज भी बद्रीनाथ मन्दिर में प्रधान पुजारी के पद पर आसीन होते हैं और सम्पूर्ण देश से आने वाले तीर्थयात्रियों को हिन्दी में ही संवोधित करते हैं| भक्तिकाल में रामानंद जी दक्षिण से भक्ति का प्रवाह लेकर उत्तर की तरफ आए थे और यहॉं उन्होंने हिन्दी भाषा में धर्म का प्रचार किया था| भारतीय इतिहास में भक्तिकाल एक ऐसा समय था, जब पूरे देश में भक्ति का प्रवाह हिन्दी भाषा के माध्यम से जन-जन में फैलता चला गया| स्वतंत्रता आन्दोलन के दिनों में विभिन्न भाषा भाषियों के बीच हिन्दी संपर्क की सर्व स्वीकार्य भाषा बन गई थी| तब देश छह सौ से अधिक रियासतों में बंटा था, उत्तर से दक्षिण तक फैली रियासतों की अपनी बोली और भाषा थी| उन दिनों इनके बीच संपर्क की भाषा बनकर हिन्दी अपनी सार्वदेशिक स्वीकार्यता सिद्ध करके सचमुच अघोषित रूप से राष्ट्रभाषा बन गई थी|

हिन्दी में जोड़ने की अकूत क्षमता है| इतिहास का एक कम चर्चित प्रसंग है, १९४६-४७ में भारत विभाजन के समय अंडमान-निकोबार द्वीपों में रहने वाले मुसलमानों ने इन द्वीपों को पूर्वी पकिस्तान के साथ जोड़ने की मांग रखी थी| किन्तु स्वतंत्रता से पूर्व वहॉं ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा’ की एक शाखा हिन्दी के प्रचार-प्रसार का काम कर रही थी| इससे वहॉं हिन्दी जानने-बोलने वालों की संख्या काफी हो गई थी| इन हिन्दी भाषियों ने भारत के साथ रहना पसंद किया और उन्होंने इस आशय का ज्ञापन तत्कालीन सरकार को भेजा, जो स्वीकार कर लिया गया| यानी हिन्दी की वजह से आज अंडमान निकोबार द्वीप समूह के सैकड़ों द्वीपों की श्रृंखला भारत का अभिभाज्य अंग है|

संविधान के जानकार कहते हैं कि संविधान में राष्ट्रभाषा शब्द ही नहीं है| भले ही ऐसा हो, लेकिन लोकमानस की दृष्टि में हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा आजादी के पहले ही बन चुकी है| यह भारत की साझा संस्कृति की वाहक है| देश की समस्त भाषाओं में हिन्दी ही वह भाषा है, जो सारे देश में कमोवेश समझी और बोली जाती है| हिन्दी हमारे लिए सम्प्रेषण का माध्यम भर नहीं है| यह  देश और समाज की आशा है| इसमें समाज के सपने पलते हैं| यह  करोड़ों देशवासियों की संस्कृति और जीवन शैली की संरक्षिका भी है| हिन्दी कमजोर होगी तो उसमें रची-बसी संस्कृति और संस्कार भी कमजोर हो जाएगा|

इतिहास में जाने पर हम पाते हैं कि हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को छल-प्रपंच के साथ समाप्त करके भावी पीढ़ी को भारतीयता और अपनी जड़ों से काटने का उपक्रम बहुत पुराने समय से चला आ रहा है| सन ११९२ के बाद इतिहास के राजपूत काल का  अंत होता है| मुस्लिम शासकों ने हिन्दी यानी अपभ्रंस और डिंगल पर फारसी लाद दी| हिन्दी राजकाज की भाषा नहीं रही और पिछड़ती गई| बाद में फारसी का स्थान उर्दू ने ले लिया| हिन्दी अपनी बोलियों अवधी, ब्रज, राजस्थानी, मैथिली, मालवी, मगही के जरिए संघर्ष करती रही| लार्ड मैकाले के चार्टर ऐक्ट-१८३५ की भाषा नीति तो इतनी कपटपूर्ण सिद्ध हुई कि संस्कृत और फारसी के विद्वान भी बौद्धिक विमर्श की परिधि से निष्कासित हो गए थे| किन्तु हिन्दी अपने विविध रूपों में जान सामान्य की भाषा सदैव बनी रही|

 ईस्ट इंडिया कंपनी के दिनों में जब अंग्रेज भारत में व्यापारी के साथ-साथ शासक की भूमिका में आ गए तो उनको सामान्य जन से व्यापक स्तर पर जुड़ने की आवश्यकता महसूस हुई| ऐसी स्थिति में तत्कालीन कलकत्ता में फोर्ट विलियम कालेज’ की स्थापना की गई| वहॉं लल्लूलाल और सदल मिश्र हिन्दी सिखाने के लिए नियुक्त हुए थे| इनसे कम्पनी के अधिकारी हिन्दी सीखे और जनता से सम्पर्क साधने एवं संवाद कायम करने में सफल हुए| इससे अधिक न उन्हें हिन्दी की जरूरत थी, न आगे पनपने दिया| बल्कि हिन्दू और मुसलमान के बीच वैचारिक मतभेद को गहरा बनाए रखने के लिए हिन्दी और उर्दू का झगड़ा अलग से खड़ा कर दिया| जैसा कि होता आया है, हर अंधेरी रात की एक उजली सुबह होती है| स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में यही हिन्दी के साथ हुआ| यद्यपि हिन्दी और उर्दू अलग-अलग लिपियों में लिखी जाने वाली कमोबेश एक जैसी भाषा थीं, किन्तु विभिन्न भाषा भाषी स्वतंत्रता आंदोलनकारियों के बीच सम्पर्क साधने में हिन्दी अधिक उपयोगी सिद्ध हुई| इसका मूल कारण था, हिन्दी की दूसरी भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करते रहने की विशिष्टता ! इस वजह से प्रत्येक भाषा भाषियों को हिन्दी में कुछ अपनी भाषा जैसी ध्वनि मिल ही जाती थी और इसलिए यह सबकी प्रिय बनती चली गई थी|  

१४ सितम्बर १९४९ को हिन्दी भारतीय गणराज्य के कामकाज की राजभाषा बनी| मजे की बात यह है कि संविधान सभा में हिन्दी को राजभाषा बनने का प्रस्ताव, अनुमोदन और समर्थन अहिंदी भाषियों ने किया था| इनका समेकित मत था कि राष्ट्रीय एकता और विकास का आधार हिन्दी में ही सन्निहित है| इस समय यह कहा गया था कि हिन्दी अभी विकासमान अवस्था में  है| इसके पास तकनीक, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, विधि, वाणिज्य, पुरातत्व जैसे विषयों की तकनीकी शब्दावली का अभाव है| साथ ही अहिंदी भाषी कर्मचारियों और अधिकारियों के बीच यह अनजान है| इसलिए हिन्दी के तत्काल व्यवहार में लाने की बात टाल दी गई| वर्ष १९५४ में ‘राजभाषा आयोग’ का गठन  हुआ| इसकी सिफारिशों के आधार पर १९६३ में संसद के दोनों सदनों द्वारा राजभाषा अधिनियम-१९६३’ पारित हुआ| पुनः १९६५ में इसमें संशोधन किए गए और हिन्दी को कार्यालयीन भाषा बना दिया गया| किन्तु अंग्रेजी का वर्चस्व सड़क से संसद तक बना रहा|

वर्ष १९७५ में पुनः राजभाषा के नियम बनाए गए, जिसमें हिन्दी को लागू करने के लिए देश को ‘क’ ‘ख’ और ‘ग’ क्षेत्रों में बॉंट दिया गया| ‘क’ यानी हिन्दी प्रदेश, ‘ख’ यानी अर्द्ध हिन्दी प्रदेश और ‘ग’ यानी अहिंदी भाषी प्रदेश| इसके तहत ‘ग’ श्रेणी के प्रदेश फिलहाल हिन्दी प्रयोग में सक्षम नहीं हैं, इसलिए एक समय सीमा के अंतर्गत हिन्दी प्रयोग के लिए अपने को तैयार करेंगे| इसके बाद राजकीय कामकाज में हिन्दी के व्यवहार का मामला कई बार से टलता चला आ रहा है| संसद,  उच्च एवं उच्चतम न्यायालय, शोध, चिकित्सा, प्रद्योगिकी संस्थान, प्रबंधन शैक्षिक संस्थान, उच्च स्तरीय संगोष्ठी सब कहीं अंग्रेजी का दबदबा है|

आज की तारीख में हिन्दी सारे देश में बोली भले नहीं जाती है, लेकिन समझी सब जगह जाती है| विज्ञान, चिकित्सा, विधि, तकनीक, शोध की तकनीकी शब्दावली का हिन्दी में पर्याप्त विकास हो चुका है| पड़ोसी  देश नेपाल में हिन्दी बोलने वालों की संख्या नेपाली बोलने वालों से अधिक है| पाकिस्तान, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार और श्रीलंका में हिन्दी समझने वाले बहुत लोग हैं| फ़िजी, गुआना, मारिसस और दक्षिण अफ्रीका में गिरमिटिया मजदूरों के वंशजों ने हिन्दी की अवधी और भोजपुरी बोली को कमोबेश बचा  रखा है| अब हिन्दी विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में दूसरे नम्बर पर है-यह दावा राजभाषा विभाग की पत्रिका राजभाषा भारती’ में गृह राज्यमंत्री ने एक साक्षात्कार में किया है| मंत्री महोदय के अनुसार,  पिछले तीन दशकों में हिन्दी का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत तेजी से विकास हुआ है| वेब, संगीत, विज्ञापन, सिनेमा, बाजार के क्षेत्र में हिन्दी जिस तेजी से बढ़ी है, वैसी तेजी और किसी भाषा के लिए देखने में नहीं आयी| विश्व के डेढ़ सौ विश्वविद्यालयों तथा सैकड़ों अन्य शैक्षणिक संस्थानों में शोध स्तर तक हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था है| वायस ऑफ अमेरिका, बीबीसी लंदन, एनएचके वर्ल्ड जापान, डायचेवेले जर्मनी, हम एफएम, यूएई सहित कई देश हिन्दी में नियमित कार्यक्रम का प्रसारण करते हैं| विदेशी धरती से दो दर्जन से अधिक पत्रिकाएं भी नियमित प्रकाशित हो रही हैं| हिन्दी संयुक्त राष्ट्र संध की कामकाज की भाषा के रूप में स्वीकार की जा चुकी है, संयुक्त अरब अमीरात ने हिन्दी को अपने यहॉं की तीसरी अदालती भाषा की मान्यता भी दी है|

भाषाविद डॉ. जयंती प्रसाद नौतियाल ने अपने भाषा अध्ययन शोध २००५ में दावा किया है कि विश्व में हिन्दी बोलने वालों की संख्या सरवधिक है, जोकि एक अरब से अधिक है| जबकि चीन की मंडारिन भाषियों की संख्या नब्बे करोड़ से अधिक नहीं है| क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थवश हिन्दी को देश में उसका वांछित गौरव भले ही नहीं मिल पाया, किन्तु सरकारों ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार पर यथेष्ट ध्यान दिया है| विश्व पटल पर हिन्दी को व्यापकता प्रदान करने की दृष्टि से कई विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित किए जा चुके हैं| राष्ट्रीय शिक्षा नीति-२०२० में प्राथमिक शिक्षा के लिए हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं की विशेष संस्तुति, चिकित्सा की पढ़ाई, भारतीय प्रशासनिक सेवा, प्रादेशिक प्रशासनिक सेवा तथा कुछेक नए क्षेत्रों में हिन्दी की मान्यता से हिन्दी सशक्त बनेगी| आज की तारीख में चुनौतियों से जूझती हिन्दी जिस गति से आगे बढ़ रही है, वह आश्वस्त करती है कि आने वाले वर्षों में हिन्दी को ‘विश्व-भाषा’ बनने से कोई नहीं रोक सकता है|                      

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