बाल मुकुन्द ओझा
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हम हर साल १४ सितम्बर को हिंदी दिवस मनाएंगे और इसे जन जन की भाषा बता कर गुणगान करेंगे| हम हिंदी दिवस जरूर मनाएं मगर वास्तविकता से मुहं नहीं मोड़े| हिंदी की सच्चाई जाने, उस पर मंथन करें ताकि जमीनी हकीकत से रूबरू हो सके| महात्मा गॉंधी ने भारत में हिंदी को जनभाषा बताया था| राष्ट्रभाषा बनाने की पहल भी की थी| आजादी के बाद राजभाषा का दर्जा भी मिला| यह सही है कि हिंदी भारत में सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा है मगर अंग्रेजी के मुकाबले यह भाषा आज दोयम दर्जे से ऊपर नहीं उठ पाई है| जब तक हमारे देश में विज्ञान और तकनीकी, इंजीनियरिंग, मेडिकल आदि की पढ़ाई मातृभाषा में नहीं होंगी, तब तक हिंदी को वह सम्मान नहीं मिलेगा, जिसकी वह वास्तविक हकदार है| इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जासकता है कि हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व आज भी कायम है| शिक्षा और रोजगार की बात करें तो अंग्रेजी के आगे हिंदी कहीं भी नहीं ठहरती| हमारी शिक्षा की बुनियाद अंग्रेजी पर टिकी है| हिंदी पढ़ने वालों को हिकारत की नजर से देखा जाता है| आजादी के ७६ वर्षों बाद भी जनमानस की धारणा यह है कि हिंदी वाला चपरासी या बाबू बनेगा और अंग्रेजी जानने वाला अफसर| लाख कोशिशों के बाद भी इस सच्चाई से हम मुंह नहीं मोड़ सकते|
आजादी के बाद देश में हिंदी के विकास के लिए १४ सितम्बर १९४९ को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया| यह दिन देश में हिंदी को बढ़ावा देने के लिए मनाया जाता है| हिंदी दिवस पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए हम अपनी अपनी निज भाषा के साथ हिंदी को स्वीकार करे और देश को प्रगति पथ और एक सूत्र में पिरोने के लिए अपने स्वार्थ त्यागे और देश के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा का परिचय दें| आज अपने ही देश में हिंदी हिन्दू और हिंदुस्तान पर हमला हो रहा है जिसका देशवासियों को मिलजुलकर मुकाबला करना होगा| हिंदी दुनिया में चौथी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है| दुनिया भर में लगभग ७० से ८० करोड़ लोग हिंदी बोलते हैं, और ७७ प्रतिशत भारतीय हिंदी लिखते, पढ़ते, बोलते और समझते हैं| भारत के अलावा, नेपाल, मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, युगांडा, पाकिस्तान, बांग्लादेश, दक्षिण अफ्रीका और कनाडा जैसे सभी देशों में हिंदी बोलने वालों की एक बड़ी तादाद है| इसके बावजूद हिंदी को वह मान, सम्मान और प्रतिष्ठा नहीं मिली जिसकी वह अधिकारी है| यह भी कहा जाता है हिंदी भाषियों ने पढ़ लिखकर हिंदी के विकास में रोड़ा लगाया| हिंदी भाषी होते हुए भी इस वर्ग ने शूट- बूट धारण कर अपनी मातृ भाषा को ठिकाने लगाया| हिंदी अपने ही देश में आज पिछड़ी है तो इसका सबसे बड़ा कारण और दोषी कोई दूसरे नहीं अपितु अपने भाई बंधु है|
आजादी के ७६ साल बाद भी विश्व में हिंदी का डंका बजाने वाले १४० करोड़ की आबादी वाले भारत में आज भी एक दर्जन ऐसे राज्य है जिनमें हिंदी नहीं बोली जाती| वहां संपर्क और कामकाज की भाषा का दर्जा भी नहीं है इस भाषा को| आश्चर्य तो तब होता है जब हम अंग्रेजी सीख पढ़ लेते है मगर हिंदी का नाम लेना पसंद नहीं करते| हिंदी भाषी स्वयं अपनी भाषा से लगाव नहीं रखते जहॉं जरुरत नहीं है वहां भी अंग्रेजी का उपयोग करने में नहीं हिचकते| देशवासियों को विचार करना चाहिए कि जिस भाषा को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया है और जो जन जन की मातृभाषा है, उसी के बोलने वाले उसे इतनी हिकारत की निगाह से क्यों देखते हैं | हिंदी की इस दुर्दशा के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है इस पर गहनता से चिंतन और मनन की महती जरूरत है| हिंदी भाषी राज्यों की हालत यह है कि वहां शत प्रतिशत लोग हिंदी भाषी है मगर प्रदेश के बाहर से आए चंद अधिकारियों ने अपना कामकाज अंग्रेजी में कर मातृभाषा को दोयम दर्जे की बना रखा है| हम दूसरों को दोष अवश्य देते हैं मगर कभी अपने गिरेबान में झांककर नहीं देखते| सच तो यह है की जितने दूसरे दोषी है उससे कम हम भी नहीं है| हिन्दी हमारी मातृ भाषा है और हमें इसका आदर और सम्मान करना चाहिये|
दक्षिण के प्रदेश अपनी निज बोली या भाषा को अपनाये इसमें किसी को आपत्ति नहीं है मगर राष्ट्रभाषा के स्थान पर अंग्रेजी को अपनाये यह हमे किसी भी हालत में स्वीकार नहीं है| वे तमिल ,कनड या बंगला को अपनाये हमे खुशी होगी मगर हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी थोपे तो यह बर्दाश्त नहीं होगा| आज आवश्यकता इस बात की है की हम देश की मातृ और जन भाषा के रूप में हिंदी को अंगीकार करे| मातृ भाषा की सार्थकता इसी में है कि हम अपनी क्षेत्रीय भाषाओँ की अस्मिता को स्वीकार करने के साथ हिंदी को व्यापक स्वरुप प्रदान कर देश को एक नई पहचान दें| यह देश की सबसे बड़ी सेवा होगी|