हिंदी को समर्पित रहे विदेशी फादर कामिल बुल्के

सारी भारतीय भाषाएं हमें अपनी अस्मिता का बोध करवाती

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नंदकिशोर अग्रवाल
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किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी भाषा और संस्कृति से होती है,  जिस की छांव में लोग पले-बढ़े होते हैं| हमारे देश की मूल भाषा हिन्दी है जो संपूर्ण भारत को एक सूत्र में जोड़ती है| हिन्दी को लेकर लोगों की बढ़ती रूची को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और आज देश में इसका जो स्थान है उसे नकारा भी नहीं जा सकता|  हिन्दी ही आज एक मात्र ऐसी भाषा है जो देश भर में बोली जाती है| दो अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले लोग आपस में हिन्दी में बात करते हैं| अंग्रेजी का प्रयोग केवल पढ़े लिखे लोग ही करते देखे गए हैं| हिन्दी एक क्षेत्र की नहीं, यह देश को जोड़ती है| अधिकतर भारतीय हिन्दी बोलते या समझते हैं|

सारी भारतीय भाषाएं हमें अपनी अस्मिता का बोध करवाती हैं तथा सब भारतीयता से जोड़ती हैं| देश की सभी भाषाओं का समृद्ध होना विविधता और संस्कृति के लिए बहुत जरूरी है| हिंदी जनमानस की भाषा है अतः इसे  राष्ट्रभाषा बनना चाहिए्| यही बात 1918 में गांधी जी ने कही थी| कर्मस्थली और कर्म भूमि का मतलब है वहां की मिट्टी से जुड़ना| अत: वहां की स्थानीय भाषा में रचना-बसना होगा और वहीं की भाषा का आलिंगन  दिलोजान से करना| फादर कामिल बुल्के ने अपने जीवन में ऐसा ही कुछ किया| उहोंने भारत आकर रोम-रोम में हिंदी को बसा लिया| भारतीय भाव को कामिल ने हिंदी के माध्यम से गले लगाया| मां भारती की भाषा हिंदी को समृद्ध करने में उनका अद्वितीय योगदान रहा है| वे ऐसे पादरी थे, जो ईसाई धर्म का प्रचार करने भारत आए थे और यहां आकर बन गए राम व हिंदी के प्रशंसक|

बेल्जियम में जन्मे ’फादर कामिल बुल्के’ बेल्जियम से ईसाई धर्म-प्रचार के लिए मिशनरी के रूप में भारत आए थे, लेकिन भारत आकर हिंदी, तुलसी और बाल्मीकि के रंग में रंग गए्| यहां तक कि उन्होंने ’राम कथा’ लिख डाली| उन्होंने ’अंग्रेजी हिंदी शब्द कोश’ तैयार कर हिंदी भाषा को एक अनूठी सौगात दी| शिक्षा के क्षेत्र में भारत द्वारा १९७४ में उन्हेंं पद्म भूषण से सम्मानित किया गया| बेल्जियम ने इस अवसर पर  हिंदी की एक डाक टिकट जारी की, जिस पर हिंदी में लिखा था- ‘एक दूसरे को लिखें|’

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