अवैध धर्मांतरण रोकें

भारत में हर नागरिक को स्वतंत्रता है कि वह अपनी आस्था का पालन करते हुए जीवन बिताए

क्या किसी की मदद इसी शर्त पर करनी चाहिए कि वह अपनी आस्था को छोड़े?

उत्तर प्रदेश में एनआईए की विशेष अदालत ने अवैध धर्मांतरण के मामले में एक दर्जन लोगों को दोषी करार देकर ऐसे कृत्यों में लिप्त लोगों / संगठनों को कड़ा संदेश दिया है। अदालत ने 12 लोगों को उम्रकैद और चार अन्य दोषियों को 10-10 साल कैद की सजा सुनाई। हमें अब इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि अवैध धर्मांतरण एक गंभीर समस्या है। यह देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा के लिए तो खतरा है ही, इससे सामाजिक सद्भाव भी खतरे में पड़ जाता है। 

भारत में हर नागरिक को स्वतंत्रता है कि वह अपनी आस्था का पालन करते हुए जीवन बिताए। इसके साथ उसका कर्तव्य है कि वह दूसरों की आस्था का भी सम्मान करे। यहां हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी, यहूदी समेत सभी धर्मों के ज्यादातर अनुयायी एक-दूसरे की आस्था का सम्मान करते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जब विभिन्न समुदायों के लोग 'सेवा' और 'मानवता' जैसे आदर्शों के लिए एकजुट हुए। ऐसे कार्यों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, लेकिन जो लोग 'मदद' के नाम पर धर्मांतरण का 'कपट धंधा' करते हैं, उन्हें दंड मिलना चाहिए। 

कोई व्यक्ति बीमार है, उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, घर में अनाज नहीं है, उसके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए कोई व्यवस्था नहीं है ... क्या उसकी मदद इसी शर्त पर करनी चाहिए कि वह अपनी आस्था को छोड़े और धर्मांतरण कर ले? फिर तो यह 'सेवा' नहीं, बल्कि 'सौदा' है और बहुत बुरा सौदा है। छल-कपट, लालच, धोखे और बहला-फुसलाकर धर्मांतरण कराने से कालांतर में कई समस्याएं पैदा होती हैं। प्राय: धर्मांतरण कराने के लिए संबंधित व्यक्ति के मन में उसके पूर्वजों, मान्यताओं और आस्था के खिलाफ कई भ्रामक बातें भर दी जाती हैं। क्या इससे सामाजिक सद्भाव नहीं बिगड़ेगा?  

कुख्यात आतंकवादी संगठन आईएसआईएस जब अपनी क्रूरता के चरम पर था, तब यूरोप समेत दुनिया के कई इलाकों से नौजवान उसमें भर्ती होने के लिए इराक व सीरिया गए थे। उनमें से कई तो अमेरिकी नेतृत्व वाले सुरक्षा बलों की कार्रवाई में मारे गए। जो किसी तरह बच गए और कैद कर लिए गए, मीडिया में उनके साक्षात्कार प्रसारित किए गए। पता चला कि उनमें बहुत युवा ऐसे थे, जिनका पहले आतंकवाद से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था। वे अपनी पढ़ाई करते, कामकाज करते। इसी दौरान वे ऐसे लोगों के संपर्क में आए, जिन्होंने दुष्प्रचार कर उनका ब्रेनवॉश कर दिया। 

कई युवा ऐसे भी थे, जिन्होंने कुछ महीने / साल पहले धर्मांतरण किया था। उनके मन में अन्य समुदायों के खिलाफ नफरत भरी गई थी। जो लोग ऐसे 'चक्कर' में जल्दी फंस जाते हैं, उनमें से ज्यादातर वे होते हैं, जिन्हें घर-परिवार या समाज में कोई सही मार्गदर्शन देने वाला नहीं होता। किशोरों / युवाओं और बुजुर्गों के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं। बच्चों की शिकायत यह होती है कि बड़े हमारी बात समझना नहीं चाहते और बड़ों की शिकायत यह होती है कि आजकल के बच्चे उन 'नियम-कायदों' से दूर हो रहे हैं, जो हमारे 'ज़माने' में थे! इन दूरियों का फायदा कोई 'तीसरा' उठाता है। 

एक कड़वी हकीकत यह है कि समाज में जिन लोगों को किसी सलाह / मार्गदर्शन की जरूरत होती है, वह उन्हें आसानी से नहीं मिलती। उदाहरण के लिए- एक किशोर, जिसके परिवार में ज्यादातर लोग कामकाजी हैं, किसी दिन सोशल मीडिया पर ऐसा वीडियो देखता है, जिसमें उसकी आस्था पर सवाल उठाए जाते हैं। क्या सच में ऐसा है? वह इसका जवाब माता-पिता से हासिल करना चाहता है, लेकिन उनके पास समय नहीं है। वे कहते हैं कि 'ऐसी बातें बंद कर, पढ़ाई पर ध्यान दे।' बुजुर्गों से पूछता है तो वे कहते हैं कि 'कैसा ज़माना आ गया! ऐसी बातें नहीं सोचनी चाहिएं।'

उसके दोस्तों में भी ऐसा कोई नहीं, जो संतोषजनक जवाब दे सके। स्कूल में अध्यापकों पर पाठ्यक्रम पूरा कराने का दबाव है। आखिर में वह बच्चा ऐसे ही किसी 'चक्कर' में फंसता है। क्या हम अपने मंदिरों को पूजा-पाठ के साथ ही सर्वसमाज को एकजुट रखने के केंद्र नहीं बना सकते? वहां हर हफ्ते स्वास्थ्य, परिवार, शिक्षा, वित्तीय मामलों, कानूनी मामलों, निजी समस्याओं के समाधान के लिए परामर्श सत्रों का आयोजन किया जा सकता है। 

समाज के समृद्ध लोगों को भी आगे आना चाहिए। याद रखें, आपकी संपत्ति व समृद्धि तब तक ही सुरक्षित हैं, जब तक समाज सुरक्षित है। सियालकोट, पेशावर, क्वेटा, लाहौर, कराची, रावलपिंडी जैसे शहरों में आलीशान हवेलियां बनाकर सदियों से रहने वाले धनपतियों को जब यह बात समझ में आई, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

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