दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 'दो दिन बाद' अपने पद से इस्तीफा देने की घोषणा कर बड़ा सियासी दांव चल दिया है। ईमानदारी का दावा कर सत्ता में आए केजरीवाल अब अपने लिए जनता से ‘ईमानदारी का प्रमाणपत्र' पाना चाहते हैं। वे दिल्ली में समय पूर्व चुनाव कराने की मांग कर रहे हैं।
केजरीवाल ने अपने गुरु अन्ना हजारे की छत्रछाया में जिस तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन कर आम आदमी पार्टी (आप) बनाई, दूसरी पार्टियों के नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए, दिल्ली में सत्ता मिली तो अपने कई पुराने साथियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया, खुद तो ईमानदारी के बड़े-बड़े दावे करते रहे, लेकिन आबकारी नीति से जुड़े मामले में जांच एजेंसियों का सामना करने से बचते रहे, आखिरकार उसी मामले में जेल चले गए। अब उच्चतम न्यायालय से जमानत मिली तो अपनी बेगुनाही साबित करने का जिम्मा जनता पर छोड़ दिया!
केजरीवाल बेगुनाह हैं या नहीं हैं, यह फैसला तो न्यायालय करेगा। अगर सत्ता-प्राप्ति को ही पाक-साफ होने का प्रमाण मान लिया जाए तो देश में अदालतों की क्या जरूरत है? केजरीवाल यह क्यों भूल जाते हैं कि एक-डेढ़ दशक पहले वे जिन नेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाते हुए उन्हें आड़े हाथों लेते थे, वे भी तो सत्ता में आए थे? इस तर्क के आधार पर उन सबको बेगुनाह क्यों न मान लिया जाए?
सत्ता कोई ऐसा दिव्य सरोवर नहीं है, जिसमें गोता लगाते ही कोई व्यक्ति अपने पुराने गुनाहों से मुक्ति पा ले। यह अपने साथ बहुत जिम्मेदारी और जवाबदेही लेकर आती है। नेताओं को त्याग, तपस्या और मर्यादा का पालन करते हुए अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए। मन में देशसेवा की भावना होनी चाहिए। खुद को लोभ-लालच से दूर रखना चाहिए। अगर जाने-अनजाने में कहीं कोई गलती हो भी जाए तो उसे स्वीकार करना चाहिए। इसके बाद न्यायालय को तय करने दें कि आप कितने पाक-साफ हैं।
केजरीवाल ने अपनी 'जेलयात्रा' के साथ महान स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह का भी उल्लेख किया। वैसे यहां भगत सिंह का उल्लेख करना बनता नहीं है। भगत सिंह तो देश की आज़ादी के लिए जेल गए थे और फांसी पाकर अमर हो गए, जबकि केजरीवाल और सिसोदिया के जेल जाने की वजह आबकारी नीति से जुड़ा कथित भ्रष्टाचार था।
अगर आम आदमी पार्टी के ये शीर्ष नेता भगत सिंह के आदर्शों का पालन करते तो राष्ट्रीय राजधानी में शराबबंदी सख्ती से लागू करते। इससे आम जनता को लगता कि हां, आम आदमी पार्टी भगत सिंह के सपनों का भारत बनाना चाहती है। उसका संदेश देशभर में जाता। अगर उस दौरान उनके जेल जाने की नौबत आती, तब यह तर्क दे सकते थे कि 'हम सुधार करने निकले हैं, लेकिन हमारी राह में कांटे बिछाए जा रहे हैं ... अब जनता-जनार्दन हमें न्याय दे ... शराब पर सख्ती से पाबंदी लगाने के लिए हमारा साथ दे।'
अगर केजरीवाल इतना कर देते तो यह अन्ना आंदोलन से भी बड़ा आंदोलन होता। उनकी सियासी साख और मजबूत हो जाती। आबकारी नीति मामले में केजरीवाल के जेल जाने से उन्हें कुछ सहानुभूति तो मिली, लेकिन बहुत लोगों को निराशा भी हुई। वे केजरीवाल को ऐसा योद्धा मानते थे, जो 'झाड़ू' लेकर भ्रष्टाचार का सफाया करने निकला था। किसने सोचा होगा कि जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ केजरीवाल ने हल्ला बोल रखा है, एक दिन खुद उसी के लपेटे में आ जाएंगे?
आबकारी नीति मामले में न्यायालय जो भी फैसला करे, तब तक केजरीवाल की साख दांव पर रहेगी। उन्होंने जमानत की अवधि का 'सदुपयोग' करते हुए चुनावों में जाने का फैसला कर लिया। दिल्ली की जनता को उनका यह दांव कितना पसंद आएगा, यह तो चुनाव नतीजों के बाद ही पता चलेगा। इतना तय है कि इस बार दिल्ली के चुनावी रण में केजरीवाल की ओर विपक्ष के तीर खासे तीखे होने वाले हैं।