प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने झारखंड में बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों का मुद्दा उठाकर एक ऐसी समस्या की ओर देशवासियों का ध्यान आकर्षित किया है, जिसका समय रहते समाधान नहीं किया गया तो यह भविष्य में बड़ा सिरदर्द बन सकती है। प्राय: कई राजनीतिक दल इसका जिक्र करने से ही परहेज करते हैं। वे घुसपैठ का विरोध करना तो दूर, उसमें भी वोटबैंक की संभावनाएं ढूंढ़ लेते हैं।
अब घुसपैठ किसी एक राज्य या केंद्रशासित प्रदेश का मुद्दा नहीं है। तमिलनाडु से लेकर लद्दाख तक ऐसे कई इलाके हैं, जो घुसपैठियों के डेरा डालने की वजह से चर्चा में हैं। असम, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में यह बहुत बड़ा मुद्दा है। वहीं, महाराष्ट्र, कर्नाटक और राजस्थान से भी आए दिन बांग्लादेशियों के पकड़े जाने की खबरें मिलती रहती हैं।
ये घुसपैठिए न केवल हमारे संसाधनों पर अवैध ढंग से कब्जा कर रहे हैं, बल्कि शांति और सद्भाव के लिए चुनौती भी बन रहे हैं। यूरोप भी इसी समस्या से त्रस्त है। जो कभी शांति, खुशहाली, सद्भाव और सहिष्णुता की धरती कहलाती थी, आज वहां हालात बिगड़ते जा रहे हैं। स्वीडन में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक, सीरिया जैसे देशों से इतने लोग आ चुके हैं कि अब वहां की सरकार को चिंता सताने लगी है।
अगर किसी न किसी बहाने इसी तरह लोगों का आना और वहां डेरा डालना जारी रहा तो भविष्य में स्वीडन के शहर भी काबुल और कराची जैसे बन जाएंगे। वहां स्थानीय लोगों के हितों की रक्षा का मुद्दा उठाने वाले कई संगठन बनने लगे हैं। उनके तेवर देखकर माना जा रहा है कि स्वीडन की राजनीति कुछ और ही करवट ले सकती है।
स्वीडन की सरकार एक और योजना पर काम कर रही है, जिसके तहत ऐसे लोगों को उनके देश लौटने के लिए 34,000 डॉलर की पेशकश की जा सकती है। यह रकम पाकिस्तान के 94 लाख रुपए से भी ज्यादा है। कभी अति-उदारता के नाम पर जिनके लिए दरवाजे खोले थे, आज उन्हें मोटी रकम देकर लौटने का आग्रह किया जा रहा है! क्या इससे मसला हल हो जाएगा?
स्वीडन सरकार फिर वही गलती करने जा रही है, जो पूर्ववर्ती सरकारों ने की थी। इतनी बड़ी रकम देखकर वहां पाकिस्तान, अफगानिस्तान जैसे देशों से घुसपैठ बढ़ेगी। लोग अपने रिश्तेदारों को बुलाना शुरू कर देंगे। यही नहीं, कई लोग रकम लेकर स्वदेश चले जाएंगे। उसके बाद किसी न किसी तरीके से दोबारा आकर दावा कर देंगे। ऐसे मामलों में सरकारों को वोटबैंक और ढीली नीतियों से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में सख्त फैसला लेना चाहिए।
देश के संसाधनों पर देश के नागरिकों का अधिकार होता है। सरकार को उनके अधिकारों की रक्षा करने के लिए दृढ़ता दिखानी चाहिए। सरकारों के ढुलमुल रवैए से वही होता है, जो आज यूरोप के कई देशों में हो रहा है। पाक मूल के एक प्रोफेसर, जो स्वीडन में वर्षों से पढ़ा रहे हैं, ने एक साक्षात्कार में बताया था कि एक बार उन्होंने वहां इराक-सीरिया जैसे देशों से आए 'शरणार्थियों' में से कुछ लोगों को पंजाबी बोलते सुना। उन्हें हैरत हुई कि अरबीभाषी देशों के लोग इतनी धाराप्रवाह पंजाबी कैसे बोल सकते हैं!
जब उन्होंने उसी भाषा में बातचीत की तो पता चला कि वे पाकिस्तानी पंजाब के विभिन्न इलाकों से थे और खुद को उक्त देशों के शरणार्थी बताकर स्वीडन में दाखिल हो गए थे। उन्होंने सरकार की ओर से मुफ्त आवास, मुफ्त भोजन, चिकित्सा और तमाम सुविधाओं का जमकर लाभ भी उठाया होगा। सरकारों के ऐसे रवैए भविष्य में घातक ही सिद्ध होते हैं। हमें इससे सबक लेना चाहिए। राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए राष्ट्रहित सर्वोच्च होना चाहिए। उन्हें घुसपैठ के मुद्दे को लेकर जनमानस में चेतना पैदा करनी चाहिए।