अपना रिकॉर्ड देखें खामेनेई

खामेनेई कहां की बात कहां जोड़ रहे हैं? 

भारत में अल्पसंख्यकों को समान अधिकार प्राप्त हैं

ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई द्वारा भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति पर की गई टिप्पणी वास्तविकता से परे है। ऐसा प्रतीत होता है कि या तो खामेनेई को भारत के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है, उन्हें सोशल मीडिया पर प्रसारित बातों के आधार पर जो कुछ लिखकर दे दिया, उसे ही बांच दिया, या वे भारत के साथ संबंधों को खराब करना चाहते हैं। खामेनेई बहुत अनुभवी राजनेता हैं। उनसे इस किस्म की टिप्पणी की उम्मीद नहीं थी। उन्होंने गाजा और म्यांमार में अल्पसंख्यकों की स्थिति के साथ भारत का जिक्र किया! खामेनेई कहां की बात कहां जोड़ रहे हैं? 

भारत में अल्पसंख्यकों को समान अधिकार प्राप्त हैं। उन्होंने हर क्षेत्र में शीर्ष पद पर सेवाएं देकर देश को गौरवान्वित किया है। खामेनेई ऐसा कोई एक उदाहरण ईरान में दिखा दें। अगर वे अल्पसंख्यकों द्वारा झेली जा रही कथित पीड़ा की बात कर रहे हैं तो पहले अपना रिकॉर्ड क्यों नहीं देखते? महसा अमीनी की हत्या कहां हुई थी और क्यों हुई थी? उसके बाद जिस तरह आक्रोश फूटा, उसे दबाने के लिए खामेनेई ने क्या किया था? उस आंदोलन में सैकड़ों महिलाओं की मौत का जिम्मेदार कौन था? 

खामेनेई साहब शुक्र मनाएं कि आम जनता ने उनकी वृद्धावस्था का ख़याल रखा। अगर वह आंदोलन और उग्र हो जाता तो उन्हें किसी अन्य देश से शरण मांगनी पड़ती। यहां ईरान और ईरानी नेतृत्व को एकसाथ जोड़कर नहीं देखना चाहिए। आम ईरानी के मन में भारत के प्रति बहुत सम्मान की भावना होती है। वह खामेनेई और उनके जी-हुजूरियों से उकता गया है। 

वहां मानवाधिकारों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। जो लोग सरकार के खिलाफ आवाज उठाते हैं, उन्हें किसी-न-किसी आरोप में या तो लंबी अवधि के लिए जेल भेज दिया जाता है या फांसी दे दी जाती है। खामेनेई पर अपने कई विरोधियों का खात्मा करवाने के गंभीर आरोप लग चुके हैं।

सवाल है- आखिर खामेनेई को यह क्या सूझी कि उन्होंने भारत पर निशाना साधा? ऐसी क्या तरंग उठी कि अपने नागरिकों की पीड़ा महसूस नहीं हुई, लेकिन भारत के आंतरिक मामलों में टांग अड़ा बैठे? वास्तव में यह ईरानी राजनीति का एक ऐसा नुस्खा है, जिसे उसके शीर्ष नेता आजमाते रहते हैं। यह देश विभिन्न प्रतिबंधों का सामना कर रहा है। इसकी आर्थिक हालत खस्ता है। तेल और गैस का भंडार होने के बावजूद कोई खास फायदा नहीं मिल रहा है। मुद्रा का भारी अवमूल्यन हो चुका है। महंगाई आसमान छू रही है। इंटरनेट पर कई तरह की पाबंदियां लगा रखी हैं, लेकिन युवा पीढ़ी किसी-न-किसी तरीके से 'प्रतिबंधित' सामग्री देख-सुन रही है। 

ईरान में अखबार सरकारी भोंपू बने हुए हैं। उनके पन्ने पश्चिमी देशों के विरोध और आत्मप्रशंसा से रंगे हुए हैं। यह सिलसिला दशकों से चला आ रहा है। ईरानी नेतृत्व को पता है कि अगर उसे सत्ता पर पकड़ मजबूत रखनी है तो समय-समय पर कोई शिगूफा छोड़ते रहना जरूरी है, जिससे लोगों का ध्यान राष्ट्रीय समस्याओं की ओर न जाए, बल्कि वे उसके सुर में सुर मिलाएं। 

खामेनेई चाहते हैं कि माहौल को गरम रखा जाए। पहले, हमास-इजराइल के मुद्दे को खूब भुनाया। ईरान के सभी अखबार हमास का 'गुणगान' कर रहे थे। उस लड़ाई को एक साल होने जा रहा है। खामेनेई ने उससे अपनी सियासत चमकाई, लेकिन गाजा में हजारों लोग मारे गए। उनमें ज्यादातर आम लोग थे। 

खामेनेई हमास के राजनीतिक ब्यूरो प्रमुख इस्माइल हानिया तक को नहीं बचा सके। वे उम्र के जिस पड़ाव में हैं, वहां आमतौर पर नेतागण सक्रिय राजनीति से अलग हो जाते हैं, जबकि ईरान के ये सर्वोच्च नेता इस्लामी देशों का नेतृत्व करने की गहरी इच्छा रखते हैं। वहां प्रतिद्वंद्विता सऊदी अरब और तुर्किये से है। लिहाजा वे ऐसे बयान दे रहे हैं, जो उन्हें सुर्खियों में रखें तथा लोग वाहवाही करें। 

क्या ही अच्छा होता अगर खामेनेई उन महिलाओं के सम्मान में भी दो शब्द बोल देते, जो ईरान में सरकारी जुल्म व ज्यादती की शिकार हो गईं! इसी रवैए के लिए कहा गया है- 'डूंगर बळती दीखै, पगां बळती कोनी दीखै'।

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