दिल्ली की नवनियुक्त मुख्यमंत्री आतिशी ने प्रभार संभालते ही एक ऐसी प्रथा की शुरुआत कर दी, जिससे यथासंभव बचना चाहिए था। उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की कुर्सी पर नहीं बैठने का फैसला कर उसे खाली रखा और अपने लिए दूसरी कुर्सी मंगवाई। वे इस फैसले को रामायण के प्रसंग से जोड़ रही हैं।
वास्तव में इस तरह के फैसले से 'व्यक्ति-पूजा' का सिलसिला चल पड़ता है, जिसे बाद में रोकना बड़ा मुश्किल होता है। यह दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी है, न कि आम आदमी पार्टी के दफ्तर की। हालांकि पार्टी दफ्तर में भी ऐसी प्रथाओं से बचना चाहिए। अपने वरिष्ठ नेताओं का सम्मान करना अच्छी बात है, लेकिन उन्हें इतना ज्यादा महिमा-मंडित भी नहीं करना चाहिए कि भगवान श्रीराम और उनके भ्राता भरत से समानता बैठाने लगें।
प्रभु श्रीराम भगवान हैं। उन्होंने त्याग, तपस्या, सत्य, वचनबद्धता, न्याय, मर्यादा, क्षमा, साहस जैसे अनेक आदर्शों को स्थापित किया था। अगर नेतागण उनमें से दो-चार आदर्शों को भी जीवन में उतार लें तो यह धरती स्वर्ग बन जाए। भगवान ने अपने पिताश्री के वचन का मान रखने के लिए सिंहासन स्वीकार नहीं किया और वन में चले गए थे। वहीं, भ्राता भरत एक तपस्वी की तरह सिंहासन पर भगवान की खड़ाऊ रखकर शासन चलाते रहे। आज राजनीति में ऐसे आदर्शों को मानने वाले कहां हैं?
आतिशी उक्त प्रसंग का उल्लेख करते हुए कहती हैं कि 'आज मेरे मन में वो ही व्यथा है, जो भरत के मन में थी, जब उनके बड़े भाई भगवान श्रीराम 14 साल के वनवास पर गए थे और भरत को अयोध्या का शासन संभालना पड़ा था।'
वैसे यह बात यहां जुड़ती नहीं है। केजरीवाल को कुर्सी इसलिए छोड़नी पड़ी थी, क्योंकि वे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप में जेल गए थे। जांच एजेंसी उन्हें बार-बार बुलाती रही, लेकिन वे कभी नोटिस में मीन-मेख निकालते, कभी व्यस्तता गिनाकर कल-परसों पर टालते रहे। अभी वे जमानत पर बाहर हैं। इसमें त्याग और तपस्या जैसे आदर्श कहां हैं?
आतिशी यह भी कहती हैं कि 'जैसे भरत ने 14 साल भगवान श्रीराम की खड़ाऊ रखकर अयोध्या का शासन संभाला, वैसे ही मैं 4 महीने दिल्ली की सरकार चलाऊंगी।' क्या 'आप' सरकार अपने अन्य फैसलों में भी भगवान श्रीराम के आदर्शों का पालन करेगी? क्या प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए कोई ठोस कदम उठाएगी? 'आप' सरकार महिला सुरक्षा के लिए क्या करने जा रही है? भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का बिगुल बजाकर सत्ता में आई 'आप' क्या उन पार्टियों से कभी गठबंधन न करने का वचन देगी, जिन्हें कभी केजरीवाल और सिसोदिया विभिन्न मंचों पर कागज (कथित सबूत) लहराते हुए कोसते थे?
अगर आदर्शों की बात करते हैं तो उन्हें निभाने का साहस जरूर दिखाना चाहिए। उन्हें 'व्यक्ति-पूजा' का माध्यम नहीं बनाना चाहिए। अगर आतिशी अपने दफ्तर में एक कुर्सी (केजरीवाल की) खाली रखेंगी और दूसरी पर खुद बैठेंगी तो इससे लोगों में यह संदेश जा सकता है कि दिल्ली सरकार में 'दो पावर' सेंटर हैं ... आतिशी को तो कुर्सी पर 'बैठाया' गया है, जबकि असली मुख्यमंत्री केजरीवाल ही हैं!'
वैसे राजनीति में 'बड़े नेता' के कुर्सी छोड़कर अपनी पार्टी के किसी अन्य नेता को बैठाने, कालांतर में उनके बीच खटपट होने के किस्से भी बहुत हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने साल 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के कमजोर प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दिया और जीतनराम मांझी को कुर्सी सौंप दी थी। बाद में मांझी के तेवर बदल गए थे।
ताजा उदाहरण झारखंड का है, जहां हेमंत सोरेन जेल गए तो चंपई सोरेन को कुर्सी मिली थी। हेमंत वापस लौटे तो दोनों नेताओं के रास्ते जुदा हो गए। आतिशी अपने दफ्तर में केजरीवाल की कुर्सी खाली रखेंगी तो इससे यह जरूर माना जा सकता है कि वे खुद को मानसिक रूप से तैयार कर रही हैं कि यहां 'कुछ ही समय' के लिए हैं, लिहाजा कुर्सी से लगाव पैदा नहीं होना चाहिए, लेकिन इससे सरकार चलाने में 'व्यक्ति-पूजा' और 'पार्टीभक्ति' ज्यादा झलकती है। इससे जनकल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की भावना पर नकारात्मक असर पड़ सकता है।