डिजिटल अरेस्ट: डरें नहीं, जागरूक रहें

साइबर ठगों के 'डिजिटल अरेस्ट' जैसे जाल को जागरूकता के शस्त्र से ही काटा जा सकता है

साइबर सुरक्षा की अनदेखी न करें, विवेक से काम लें

जालसाजों के गिरोह द्वारा एक मशहूर कारोबारी समूह के अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक से 7 करोड़ रुपए ठगने का मामला बताता है कि साइबर अपराधी कितने बेलगाम हो गए हैं। जब ये इतने बड़े व्यक्ति को 'डिजिटल अरेस्ट' का डर दिखाकर मोटी रकम ऐंठ सकते हैं तो आम आदमी कितना सुरक्षित है? 

हालांकि इस मामले को सुलझाने में पुलिस की भूमिका प्रशंसनीय रही, जिसने असम के गुवाहाटी से आरोपियों को गिरफ्तार किया और 5.25 करोड़ रुपए भी बरामद कर लिए। कुछ आरोपी अभी फरार हैं, जिनको जल्द गिरफ्तार करना चाहिए। अब तक 'डिजिटल अरेस्ट' के नाम पर जो घटनाएं हुईं, उनमें ठगी की रकम लाखों रु. में थी। 

इस बार साइबर अपराधियों ने आंकड़ा 7 करोड़ रु. तक पहुंचा दिया! अगर समय रहते अपराधियों पर शिकंजा नहीं कसा गया तो भविष्य में ठगी की रकम का आंकड़ा इससे भी बड़ा हो सकता है। इन सभी घटनाओं का विश्लेषण करें तो एक सवाल पैदा होता है- लोग 'डिजिटल अरेस्ट' सुनते ही क्यों डर जाते हैं? क्या उन्हें मालूम नहीं कि भारत में 'डिजिटल अरेस्ट' जैसा कोई कानूनी प्रावधान है ही नहीं? 

साइबर अपराधी जब कोई नया शिगूफा छोड़ते हैं तो उससे पहले लोगों की कुछ खास मनोवृत्तियों को ध्यान में जरूर रखते हैं। वे जानते हैं कि लोग उनके झांसे में मुख्यत: दो वजहों से आएंगे - लालच और डर। लॉटरी निकलने, धन दुगुना करने, घर बैठे लाखों रुपए कमाने ... जैसे दांव खूब आजमाए गए। अब 'डिजिटल अरेस्ट' पर खास जोर है। आश्चर्य की बात है कि साइबर अपराधियों ने बैंक मैनेजर, डॉक्टर, शिक्षक, वरिष्ठ सैन्य अधिकारी से लेकर वकील तक को इसी तरीके से चूना लगाया है!

जब लोगों को फोन कॉल के जरिए पता चलता है कि उन्हें 'डिजिटल अरेस्ट' किया जा रहा है तो वे बदनामी के डर से ठगों के 'आदेश' का पालन करते जाते हैं। उन्होंने ज्यादातर मामलों में परिवार के किसी सदस्य या वरिष्ठ अधिकारी को उस समय सूचित किया, जब ठगों द्वारा बताए गए बैंक खाते में मोटी रकम भेज चुके थे। 

अगर उन्हें पता रहता कि 'डिजिटल अरेस्ट' कोरा झूठ है तो वे ठगी के शिकार नहीं होते। कई लोगों ने तो जिंदगीभर की कमाई लुटा दी। सोचिए, अगर पुलिस हर अपराधी को उसके घर में 'डिजिटल अरेस्ट' करके रखती तो इतनी जेलों और सुरक्षाकर्मियों की क्या जरूरत थी? फिर तो हर अपराधी अपने घर में कैद रहता और कहीं कोई अपराध नहीं होता, चारों ओर सुख-शांति का वातावरण हो जाता! 

अगर अपराध पर काबू पाना इतना आसान होता तो जांच एजेंसियों की क्या जरूरत थी? प्राय: साइबर अपराधी अपने दावे को मजबूत करने के लिए पीड़ित को कथित वारंट भेजते हैं, जिसके लिए कहा जाता है कि यह उच्चतम न्यायालय, सीबीआई, ईडी, आईबी, पुलिस ... की ओर से है। सोचिए, अगर किसी व्यक्ति ने सच में बहुत गंभीर अपराध किया हो और उसकी तलाश उच्चतम न्यायालय से लेकर तमाम बड़ी एजेंसियों को हो तो क्या उसे फोन पर सूचित किया जाएगा? ऐसे अपराधी को एजेंसियां फोन नहीं करतीं, बल्कि भनक लगते ही उसे उठा ले जाती हैं। 

ऐसे कई बिंदु हैं, जिन पर थोड़ा भी विचार करें तो यह बात आसानी से समझ सकते हैं कि 'डिजिटल अरेस्ट' शातिर अपराधियों के दिमाग की उपज है, जिसका हकीकत से कोई लेना-देना नहीं है। इस झांसे में बिल्कुल न आएं। समाचारपत्रों में साइबर विशेषज्ञ दर्जनों आलेख लिखकर सजग रहने की अपील कर चुके हैं, लेकिन उनके सुझाव पढ़ने के लिए समय निकालना लोगों को मुश्किल लगता है, जबकि मोबाइल फोन पर रील देखने में घंटों बिता देना सामान्य बात हो चुकी है। 

ध्यान रखें, साइबर ठगों के 'डिजिटल अरेस्ट' जैसे जाल को जागरूकता के शस्त्र से ही काटा जा सकता है। इसके लिए बहुत जरूरी है कि मोबाइल फोन पर आने वाली हर चीज (चाहे वह फोन कॉल ही क्यों न हो) को सच मानने से परहेज करें। अपनी मेहनत की कमाई को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो साइबर सुरक्षा की अनदेखी न करें, विवेक से काम लें।

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