पाकिस्तान के एक नागरिक का उसकी पत्नी और कुछ अन्य लोगों सहित कई वर्षों से फर्जी पहचानपत्र के साथ बेंगलूरु के पास रहने का मामला राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत गंभीर विषय है। देशभर में ऐसे कितने लोग हैं, जो पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार या किसी अन्य देश के नागरिक हैं, लेकिन यहां अवैध ढंग से डेरा डाले बैठे हैं?
इस बात की क्या गारंटी है कि फर्जी दस्तावेजों के साथ 'नई पहचान' का लबादा ओढ़े ये लोग सिर्फ रहने के मकसद से यहां आए थे? शत्रु देशों की खुफिया एजेंसियां और भारतविरोधी संगठन उनका इस्तेमाल कर सकते हैं। लिहाजा ऐसे हर मामले को बहुत गंभीरता से लेना चाहिए।
यह कैसे संभव है कि कोई विदेशी शख्स अपने परिवार के साथ महीनों / वर्षों हमारे देश में रहे और पड़ोसियों को उसका पता भी न चले? उसे रोजमर्रा का सामान खरीदने, कामकाज करने के लिए बाहर तो जाना होता है। क्या उसका लहजा छिप सकता है?
अगर राजस्थान, मध्य प्रदेश या उत्तराखंड ... के किसी शहर में श्रीलंका का कोई शख्स अपने परिवार के साथ आकर रहने लगे तो उसके दस्तावेजों में कितना ही फर्जीवाड़ा क्यों न हो, आस-पास के लोगों को तुरंत इस बात का संदेह हो जाएगा कि जरूर कोई गड़बड़ है।
हमारे देश की सुरक्षा और अखंडता के साथ एक अजीब तरह का खिलवाड़ हो रहा है। घुसपैठिए किसी-न-किसी तरीके से यहां आने में कामयाब हो जाते हैं। उसके बाद वे आसानी से फर्जी दस्तावेज बनवा लेते हैं! उन दस्तावेजों को देखकर जांच अधिकारी भी हैरान रह जाते हैं। दुर्भाग्य की बात है कि हमारे ही देश के कुछ लोग लालच में आकर राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डाल रहे हैं।
जब भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास पढ़ते हैं तो पता चलता है कि बड़े-बड़े योद्धाओं के साथ उन्हीं के कुछ साथियों ने विश्वासघात किया था। जब विदेशी आक्रांता अपनी पूरी ताकत लगाकर भी किले की दीवारें नहीं तोड़ पाते थे, तब कुछ लोग चंद सिक्कों के बदले अपनी निष्ठा का सौदा कर लेते थे। वे किले के दरवाजे अंदर से खोल देते या दीवार के कमजोर हिस्से की ओर इशारा कर देते थे।
अगर समय रहते उन भ्रष्टाचारियों की पहचान कर उन्हें कठोर दंड दे दिया जाता तो हमारा इतिहास कुछ और ही होता। हमारे पूर्वजों को सदियों तक विदेशी आक्रांताओं का गुलाम नहीं रहना पड़ता।
अब भारत सरकार को ऐसे लोगों के मामलों में बहुत सख्ती दिखानी होगी, जो घुसपैठियों को फर्जी आधार कार्ड, राशन कार्ड, पासपोर्ट आदि बनाकर देते हैं या किसी भी तरह से उनकी मदद करते हैं। उन पर भारी जुर्माना लगाया जाए। साथ ही कठोर कारावास दिया जाए।
यह भी विडंबना है कि जब घुसपैठियों के खिलाफ कार्रवाई करने का मुद्दा उठाया जाता है तो कुछ 'बुद्धिजीवी' इसे मानवाधिकार का मुद्दा बनाकर अदालतों में चले जाते हैं। वे मांग करते हैं कि इन लोगों को उनके देश न भेजा जाए, बल्कि यहां आवास, भोजन, रोजगार, चिकित्सा समेत सभी तरह की सुविधाएं दी जाएं। वे उन्हें नागरिकता देने की वकालत करते हैं।
हां, वे कश्मीरी पंडितों के मुद्दे को काल्पनिक करार देंगे। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में हिंदू, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी समुदाय के लोगों के उत्पीड़न पर चुप्पी साधे रखेंगे। लेकिन जैसे ही 'घुसपैठियों' की पहचान कर उन्हें स्वदेश भेजने की बात की जाती है तो उनमें न जाने कहां से ऊर्जा का भारी संचार होने लगता है।
उन्हें असहिष्णुता, मानवाधिकारों का हनन समेत सारे ऐब भारतीय समाज में दिखाई देने लगते हैं। वे सोशल मीडिया पर खरी आलोचना करने लगते हैं। वे चाहते हैं कि देश उन लोगों का खर्च वहन करे, जो गलत तरीके से सरहद पार कर आए हैं और यहां रहने के लिए फर्जी दस्तावेज बनवा लिए हैं।
अगर ऐसे दस-पंद्रह लोगों को उन्हें अपने घर में एक दिन रखने के लिए कहा जाए तो वे हाथ खड़े कर देंगे और कोई बहाना बनाकर अपना पल्ला झाड़ लेंगे। भारत सरकार को चाहिए कि वह घुसपैठियों के खिलाफ तो सख्त कार्रवाई करे ही, फर्जी दस्तावेज बनाकर उनकी मदद करने वालों के लिए दंड का ऐसा प्रावधान करे, जिससे दूसरों को सबक मिले।