दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण के बीच केजरीवाल सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदम 'आग लगने पर कुआं खोदने' जैसे हैं। वायु गुणवत्ता सुधारने के लिए जो प्रयास किए जा सकते हैं, वे जरूर करने चाहिएं, लेकिन उनका फायदा उसी सूरत में मिलता है, जब वे 'सही समय' पर किए जाएं।
अब दिल्ली सरकार प्रदूषण के स्तर पर काबू पाने के लिए कई 'उपाय' कर रही है। इनमें मेट्रो ट्रेनों के अतिरिक्त फेरे लगवाने, सड़कों पर धूल नियंत्रित करने के लिए एमसीडी के 6,000 से ज्यादा कर्मचारियों की तैनाती करने, पार्किंग शुल्क दोगुना करने और भीड़ वाले इलाकों में 1,800 से ज्यादा यातायात कर्मियों की तैनाती करने जैसे उपाय शामिल हैं।
यही नहीं, कोयले और लकड़ी के साथ डीजल जनरेटर के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया गया है। उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे पड़ोसी राज्यों को पत्र लिखकर कहा जा रहा है कि दिल्ली में डीजल बसें न भेजें। पटाखों पर तो प्रतिबंध पहले ही लगा दिया गया है। क्या ही अच्छा होता, अगर दिल्ली सरकार ऐसे कई सुधारों को लागू करने के लिए कुछ साल पहले कदम उठा लेती!
राष्ट्रीय राजधानी में हर साल इस समय कमोबेश ऐसे ही हालात होते हैं। तब सरकार अचानक सक्रिय हो जाती है। टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों में आरोप-प्रत्यारोप के दौर चलने लगते हैं। कुछ दिन वायु प्रदूषण का मुद्दा खूब सुर्खियां बटोरता है। उसके बाद हालात 'ढाक के तीन पात' जैसे हो जाते हैं। इस साल तो गर्मियां भी बहुत ज्यादा तकलीफदेह रहीं। राष्ट्रीय राजधानी के कई इलाकों में पानी के लिए हाहाकार मचा रहा, वहीं सूर्यदेव ने भी खूब रौद्र रूप दिखाया था।
उस दौरान सोशल मीडिया पर कई लोगों ने अभियान चलाया था कि पर्यावरण की रक्षा करने के लिए एसी का इस्तेमाल कम करें और पौधे ज्यादा लगाएं। जैसे ही मानसून आया, वह अभियान 'बह' गया।
अब वायु प्रदूषण का शोर है। विभिन्न वॉट्सऐप समूहों में लोग चिंता जता रहे हैं। एक सर्वेक्षण में तो यह दावा किया गया है कि दिल्ली-एनसीआर में 36 प्रतिशत परिवारों में एक या एक से ज्यादा सदस्य प्रदूषण से संबंधित बीमारियों, जैसे- गले में खराश, खांसी और सांस लेने में समस्या से पीड़ित हैं। अगर वायु प्रदूषण की स्थिति अगले पांच वर्षों में भी नहीं सुधरी तो लोगों की सेहत का क्या होगा?
ऐसा नहीं है कि वायु प्रदूषण सिर्फ दिल्ली और भारतीय महानगरों की बड़ी समस्या है। पड़ोसी देश पाकिस्तान का लाहौर तो दुनिया का सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर घोषित हो चुका है, जहां वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) 394 पर पहुंच गया है। पाकिस्तान की सरकारों ने भी वायु प्रदूषण को दूर करने संबंधी उपायों को गंभीरता से नहीं लिया था। अब हालात सबके सामने हैं।
वायु प्रदूषण के कारण शहर गैस चैंबर बनते जा रहे हैं। अगर सरकारों ने अब भी सुध नहीं ली तो क्या एक दशक बाद ये शहर इन्सानों के रहने लायक बचेंगे? उसके बाद अगली मंजिल क्या होगी? जिन लोगों ने ज़िंदगीभर की कमाई से इन शहरों में आशियाने बना लिए, वे क्या करें? ऐसे कई परिवार हैं, जिनमें छोटे बच्चों और बुजुर्गों को सांस संबंधी बीमारियां हो रही हैं। डॉक्टर कहते हैं कि उन्हें (तुलनात्मक रूप से अधिक) साफ वातावरण में रहना चाहिए, लेकिन परिजन विवश हैं। पढ़ाई, कमाई ... सबकुछ उसी शहर से जुड़े हैं। ठौर-ठिकाना बदलना इतना आसान तो नहीं होता।
अन्य राज्यों की सरकारों को दिल्ली के हालात से सीखना चाहिए। यही समय है, जब उन्हें वायु गुणवत्ता सुधारने के लिए बहुत गंभीरता से काम करने होंगे। सरकारों को चाहिए कि वे सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा दें, ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों को चलन से बाहर करें, लकड़ी-कोयले की जगह स्वच्छ ईंधन के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करें, जहां संभव हो, वर्क फ्रॉम होम लागू करें।
साइकिल के उपयोग को प्राथमिकता में शामिल करें। नेतागण खुद को खास मौकों पर साइकिल चलाते हुए तस्वीर खिंचवाने तक सीमित न रखें। साइकिल चलाने वालों के सुरक्षित आवागमन के लिए रास्ते बनाए जाएं। ऐसे लोगों को 'पर्यावरण के रक्षक' घोषित कर उन्हें वेतन वृद्धि समेत अन्य सुविधाएं दी जाएं। आरोप-प्रत्यारोप से ऊपर उठकर ही पर्यावरण को निर्मल बनाया जा सकता है।