पटेल के हाथ से खिसकने से उलझी कश्मीर नीति

पटेल पूरे कश्मीर पर नियंत्रण चाहते थे

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ई. प्रभात किशोर

कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने १५ अगस्त १९४७ की निर्धारित समय सीमा तक विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर नहीं किए थे| प्रारंभ में सरदार पटेल बड़ी चतुराई से मामलों को निपटा रहे थे|  पटेल ने २१ सितंबर १९४७ को महाराजा को लिखा कि जस्टिस मेहरचंद महाजन आपको कश्मीर के हित को प्रभावित करने वाले सभी मामलों पर हमारी बातचीत का सार बताएंगे| मैंने उन्हें पूरा समर्थन और सहयोग देने का वादा किया है| पटेल ने वस्तुतः महाजन को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त करने का निर्देश दिया था|

पटेल ने स्वतंत्र कश्मीर की निरर्थकता के संबंध में महाराजा का ब्रेनवॉश करने के लिए आरएसएस प्रमुख गुरु गोलवलकर को श्रीनगर भेजा और यह संदेश संप्रेषित किया कि पाकिस्तान आपकी स्वतंत्रता को कभी सहन नहीं करेगा और अंततः विद्रोह करवाएगा| महाराजा द्वारा विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने की सहमति के पश्चात गुरुजी १९ अक्टूबर को दिल्ली लौट आए और पटेल को वस्तुस्थिति से अवगत कराया|

घाटी में दो राष्ट्रीय हस्तियों के बीच परस्पर विरोधी विचार थे| शेख अब्दुल्ला की साम्प्रदायिक दृष्टि एवं अति महत्वाकांक्षा के कारण उनके प्रति पटेल की नकारात्मक सोच थी; जबकि नेहरू महाराजा को पसंद नहीं करते थे और अब्दुल्ला के प्रति आत्मीय लगाव रखते थे| दरअसल, महाराजा ने नेहरू को जून १९४६ में गिरफ्तार किया था, जब वह कश्मीर छोड़ो आंदोलन के दौरान अब्दुल्ला का समर्थन करने कश्मीर आए थे| नेहरू का एकमात्र उद्देश्य अब्दुल्ला को सत्तासीन करना और महाराजा को गद्दी से उतारना था| शेख अब्दुल्ला भारतीय देशभक्ति के कारण नहीं अपितु अपने निजी कारणों से कश्मीर के पाकिस्तान में विलय के खिलाफ थे| उनकी महत्वाकांक्षा कश्मीर का प्रधानमंत्री बनने की थी, लेकिन वे इस बात से पूरी तरह भिज्ञ थे कि जिन्ना के मुसलमानों का मसीहा होने के नाते पाकिस्तान में उनके लिए कोई अवसर नहीं है|

सन १९४७ में, पाकिस्तान सेना की छत्रछाया में लगभग ५००० सशस्त्र कबायलियों ने कश्मीर पर हमला कर दिया| गिलगित स्काउट के ब्रिटिश कमांडर मेजर ब्राउन ने कश्मीर सरकार से विद्रोह करते हुए गिलगित को पाकिस्तान के हवाले कर दिया| २३ अक्टूबर १९४७ को, महाराजा ने पटेल को लिखा कि एक विशेष समुदाय की लगभग पूरी सेना या तो भाग गई है या सहयोग करने से इनकार कर दिया है| २५ अक्टूबर को भारतीय कैबिनेट की रक्षा समिति की बैठक में, पटेल ने महाराजा की मदद करने की पेशकश की, लेकिन नेहरू की पहली प्रतिक्रिया थी कि सर्वप्रथम महाराजा को बिना प्रतिरोध के अब्दुल्ला को सत्ता में सहभागी बनाना चाहिए| पटेल ने महाजन को कश्मीर वापस जाने और महाराजा को यह बताने के लिए कहा कि भारतीय सेना कूच कर चुकी है|

उसी दिन महाराजा ने जम्मू में विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए और सैन्य सहायता के लिए लिखित रूप में अनुरोध किया| हरि सिंह-अब्दुल्ला फॉर्मूले के अनुसार, अब्दुल्ला को घाटी की देखभाल करनी थी और जम्मू को महाराजा के पूर्ण नियंत्रण में रखा जाना था| लेकिन महत्वाकांक्षी अब्दुल्ला ने जम्मू में भी दखल देना शुरू कर दिया| अच्चानक नेहरू ने महाराजा को पत्र लिखा कि शेख को प्रधानमंत्री बनाया जाय और उन्हें सरकार बनाने के लिए कहा जाय | महाराजा इसके संवैधानिक प्रमुख हो सकते हैं| इस पत्र ने एक निर्णायक मोड़ आ चुके पूरे परिदृश्य को पूरी तरह से उलझा कर रख दिया|

वस्तुतः नेहरू पटेल से भयभीत थे कि वह शेख को उनकी महत्वाकांक्षा के अनुसार चलने नहीं देंगे| अब्दुल्ला को कश्मीर के भविष्य की कपोल कल्पना करते हुए नेहरू ने कश्मीर मामले का प्रबंधन स्वयं अपने हाथ में लेने का निर्णय ले लिया|   पटेल और नेहरू के बीच एक दरार पैदा हो गई थी  और पटेल ने अपने त्याग-पत्र की पेशकश तक कर दी| माउंटबेटन की सलाह पर नेहरू इस मामले को संयुक्त राष्ट्र को भेजने के लिए सहमत हो गए | पटेल ने उनके इस कदम का कड़ा विरोध किया, लेकिन कश्मीर अब नेहरू के हाथ का खिलौना बन चुका था| पटेल पूरे कश्मीर पर नियंत्रण चाहते थे, भले ही उसके लिए युद्ध हीं क्यों न करना पड़े|

भारत ने चेतावनी दी कि यदि पाकिस्तान ने आक्रमणकारियों की सहायता बंद नहीं की तो उसे सुरक्षात्मक सैन्य कार्रवाई हेतु बाध्य होना पड़ेगा| परन्तु माउंटबेटन ने नेहरू को दिग्भ्रमित किया कि ऐसा कोई भी कदम उनके व्यक्तिगत छवि एवं उनकी विदेश नीति को धूमिल कर देगा|  कश्मीर को विशेष दर्जा देने के लिए अनुच्छेद ३७० का मसौदा तैयार करने से अम्बेडकर के इनकार के बाद नेहरू ने मसौदा समिति के एक सदस्य अय्यंगार को इस कार्य हेतु तैयार किया| न केवल पटेल और अंबेडकर बल्कि मौलाना आजाद और अय्यंगार को छोड़कर संविधान सभा के सभी नेता इस मुद्दे पर विरोध में थे| लेकिन नेहरू की बचकानी जिद होने के कारण किसी ने दखल नहीं दिया|

डॉ. कर्ण सिंह के अनुसार यह सरदार पटेल ही थे जिन्होंने मेरे पिता के साथ पत्राचार किया, जिसके कारण अंततः जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक परिवर्तन सुचारू रूप से चला| कश्मीर में  जनमत संग्रह की पेशकश, संयुक्त राष्ट्र में मामले को बेवजह ले जाने, पूरे क्षेत्र से हमलावरों को भगाये बिना युद्धविराम, राज्य के एक तिहाई हिस्से को पाकिस्तानी हाथों में छोड़ देने, शेख को लूट की खुली छूट और महाराजा को हटाने जैसे मुद्दों पर नेहरू के रवैये से खिन्न पटेल ने समय-समय तल्ख टिप्पणी भी की| पटेल के सुनियोजित तरीके से मामले को सुलझाने के मार्ग में बाधा पहुंचाने और शेख की महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु नेहरू की व्यक्तिगत जिद ने कश्मीर नीति को उलझाते हुए इसके भविष्य को अंधकारममय बना दिया|  

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