बांग्लादेश में जिस तरह हजारों की तादाद में हिंदुओं ने अपने अधिकारों के लिए प्रदर्शन किया, वह बहुत जरूरी था। वास्तव में यह कुछ देर से उठाया गया कदम भी है। पड़ोसी देश के ये अल्पसंख्यक क्या मांग रहे हैं? क्या ये सरकारी नौकरी पाने के लिए आवाज उठा रहे हैं? क्या ये आरक्षण मांग रहे हैं? क्या ये सत्ता में भागीदारी चाहते हैं? क्या ये महंगाई से राहत चाहते हैं? क्या ये अपने लिए कोई खास सुविधा चाहते हैं?
इन सभी सवालों का एक ही जवाब है- 'नहीं'। ये लोग इनमें से कुछ नहीं चाहते। ये तो बस ज़िंदा रहने का अधिकार चाहते हैं। ये चाहते हैं कि इन पर हमला न किया जाए, इन्हें सताया न जाए, इनका उत्पीड़न न किया जाए। बस, सुकून से ज़िंदा रहने दिया जाए! लगभग 30,000 हिंदू चटगांव में प्रदर्शन करने के लिए निकले तो सही! यह एकता स्वागत-योग्य है, लेकिन यहां तक पहुंचते-पहुंचते देर कर दी।
अगर यही एकता कुछ साल पहले दिखा देते तो न आपकी दुकानें लूटी जातीं, न आपके घरों में तोड़फोड़ होती और न बहन-बेटियों के साथ अभद्र हरकतें होतीं। हाल के वर्षों में बांग्लादेशी कट्टरपंथियों ने जिस तरह दुर्गापूजा के अवसर पर रंग में भंग डालने की घटनाओं को अंजाम दिया, उन्हें टाला जा सकता था। कम-से-कम त्योहार तो शांति से मना पाते। बांग्लादेशी हिंदुओं के विषय में यह धारणा है कि ये अपने 'अधिकारों' के लिए खुलकर आवाज नहीं उठाते। हर कोई अपने व्यापार, नौकरी और कामकाज में व्यस्त रहता है। सामाजिक कार्यों के लिए इनके पास 'समय' नहीं होता है।
जब कोई 'अप्रिय घटना' हो जाती है तो यह सोचकर मन को दिलासा देते हैं कि भविष्य में इसकी रोकथाम 'सरकार' जरूर करेगी। अवामी लीग के नेताओं ने हिंदू समाज से खूब वोट लिए। उनके नेता हंसते-मुस्कुराते फोटो खिंचवाते और चले जाते। आज अवामी लीग की दुर्दशा सबके सामने है। शेख हसीना को प्रधानमंत्री निवास से अपनी जान बचाने के लिए भारत आना पड़ा।
उसके बाद वहां अल्पसंख्यक बिल्कुल 'अकेले' और 'असहाय' थे। उन पर हमले हुए। बांग्लादेश में अंतरिम सरकार का नेतृत्व कर रहे मोहम्मद यूनुस कहते हैं कि हमलों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया। शुक्र है, उन्होंने यह नहीं कहा कि ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी! बांग्लादेश के घटनाक्रम और मौजूदा हालात से यह सबक मिलता है कि सामाजिक एकता बहुत जरूरी है।
अपनी पढ़ाई और कमाई के लिए मेहनत करना अच्छी बात है। उसके साथ ही समाज को संगठित करने, एकजुट रखने के लिए समय देना होगा, संसाधन खर्च करने होंगे। 'मुझे क्या मतलब है' ... 'मुझे क्या मिलेगा' ... 'मेरा क्या जाता है' ... 'मुझे क्या नुकसान है' ... 'मैं ही क्यों करूं' ... 'जब मुझ पर आएगी, तब देखूंगा' ... की मानसिकता से ऊपर उठना होगा। बांग्लादेशी हिंदुओं को इस सवाल पर विचार करना होगा कि कभी आपकी आबादी 20 प्रतिशत से ज्यादा थी, वह 8 प्रतिशत से नीचे कैसे आ गई?
वहां अल्पसंख्यकों के धर्मांतरण और उत्पीड़न की घटनाएं होती रहीं। इसके बावजूद सामाजिक स्तर पर संगठनों की क्या स्थिति थी? राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया तक अपनी बात कब-कब पहुंचाई और किन शब्दों में पहुंचाई? सवालों की सूची बहुत लंबी है। उनसे जुड़े तथ्यों का विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि बांग्लादेशी अल्पसंख्यक अपनी आवाज उठाने में बहुत पीछे रह गए।
कभी सोचा है- गाजा, फिलिस्तीन जैसे मुद्दे इतनी जल्दी सुर्खियों में क्यों आ जाते हैं? दुनियाभर के लोग उन्हें समर्थन क्यों देते हैं? इसलिए, क्योंकि उनके पीछे प्रचार तंत्र बहुत मजबूत है। दुर्भाग्य से बांग्लादेशी अल्पसंख्यकों ने अपने लिए ऐसा कोई तंत्र नहीं बनाया। वे दृढ़ता से संगठित नहीं हुए। उनकी आवाजें अनसुनी रहीं, जो कि होनी ही थीं।
अब अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उनके लिए आवाज उठाई तो पूरा सोशल मीडिया उनकी तारीफों के पुल बांधने लगा। ट्रंप भी इतने दिनों तक खामोश क्यों रहे? क्या उन्हें पता नहीं था कि दुनिया के नक्शे में बांग्लादेश कहां है? बांग्लादेशी अल्पसंख्यक इस बात का इंतजार न करें कि कोई नेता आए और वह उनके लिए आवाज उठाए। अपनी आवाज खुद उठाएं, संगठित होकर उठाएं। पहले, अपने मददगार खुद बनें। अगर आप अपने अधिकारों की बात नहीं करेंगे तो दुनिया में कोई क्यों करेगा?