'शत्रुबोध' की कमी

भारत-पाकिस्तान के रिश्ते अच्छे होने चाहिएं

बातचीत करने से किसी को क्या आपत्ति हो सकती है?

जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जिक्र करते हुए सत्य कहा कि 'उन्होंने हमेशा स्थिति को सुधारने की कोशिश की थी।' वाजपेयी ने बतौर प्रधानमंत्री, लोगों को करीब लाने की कोशिशें की थीं, जिससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। 

जम्मू-कश्मीर विधानसभा में श्रद्धांजलि सभा के दौरान उमर अब्दुल्ला ने वाजपेयी के दौर को याद करते हुए उनकी कोशिशों को सराहा, लेकिन मुख्यमंत्री के कुछ शब्दों में उन्हीं 'भूलों' के प्रति एक आग्रह दिखाई देता है, जो हमारी सभी सरकारों से कहीं-न-कहीं हुई थीं। भारत में आज भी राजनेताओं, बुद्धिजीवियों, लेखकों और वक्ताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग है, जो यह मानता है कि भारत और पाकिस्तान के रिश्ते 'बातचीत' से अच्छे हो जाएंगे। 

उमर अब्दुल्ला के शब्दों - 'फिर वे (वाजपेयी) सरहद पर खड़े हो गए और कहा कि हम दोस्त बदल सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं ... बातचीत ही एकमात्र रास्ता है। उन्होंने असफलताओं का सामना करने के बावजूद बार-बार दोस्ती का हाथ बढ़ाया ...' में भी यही भावना झलकती है। 

भारत-पाकिस्तान के रिश्ते अच्छे होने चाहिएं। इससे दोनों तरफ आम लोगों को बहुत फायदा हो सकता है। हमारे देश में जिस भी दल / गठबंधन की सरकार रही, उसने इस बात के लिए कोशिशें जरूर की थीं कि रिश्तों में बेहतरी आए। प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक, सबने अपने-अपने तरीके से मैत्री और सद्भाव कायम करने के लिए भरपूर कोशिशें कीं। 

इसके बदले पाकिस्तान से क्या मिला? धोखा, युद्ध, आतंकवाद ...! अगर आज कोई व्यक्ति (चाहे वह वरिष्ठ राजनेता हो या आम आदमी) यह सोचता है कि पाकिस्तान के साथ रिश्ते 'बातचीत' करने से अच्छे हो सकते हैं, तो यह उसकी नेक भावना तो हो सकती है, लेकिन उसका हकीकत से उतना ही निकट संबंध होगा, जितना डोनाल्ड ट्रंप का अयातुल्ला ख़ामेनेई से है!

न जाने क्यों, भारत में बहुत लोग (जिनमें बड़े-बड़े बुद्धिजीवी शामिल हैं) इस बात पर खूब जोर देते हैं कि 'हमें पाकिस्तान के साथ बार-बार बातचीत की कोशिशें करनी चाहिएं, बातचीत से सबकुछ ठीक हो जाएगा!' बातचीत करने से किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? उसके साथ यह भी तो देखें कि ऐसी हर बातचीत का क्या नतीजा निकला? 

अगर वाजपेयी की ही मिसाल लें तो वे बहुत अच्छे माहौल में बस लेकर लाहौर गए थे। उनके उस कदम को वहां बहुत सराहा गया था। उसके कुछ दिन बाद कारगिल युद्ध हो गया, जिसकी साजिश उस वक्त रची जा चुकी थी, जब वाजपेयी लाहौर में दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे थे। यह हमारे साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ था, जिसे हमें कोरी भावुकता से ऊपर उठकर याद रखना चाहिए। 

उमर अब्दुल्ला के इन 'शब्दों' में किसी वरिष्ठ राजनेता की परिपक्वता से ज्यादा ऐसी भावुकता झलकती है, जिन्हें हर दूसरे टीवी चैनल, यूट्यूब चैनल पर लोग दोहराते दिख जाते हैं कि ‘उन्होंने (वाजपेयी) नियंत्रण रेखा (एलओसी) के आर-पार के रास्तों को खोलने के लिए काम किया, जो बाद में फिर से बंद हो गए ... आज हमें अलग रखने की कोशिश की जा रही है।' जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री को यह भी बताना चाहिए कि वे 'रास्ते' फिर से बंद क्यों हुए और 'अलग' रखने की कोशिश किसने की? 

अगर हम किसी के लिए अपने घर का दरवाजा खोलते हैं तो यह अपेक्षा जरूर रखते हैं कि सामने जो व्यक्ति हो, वह हमें या हमारे घर में किसी को नुकसान न पहुंचाए। जब हम देश के 'दरवाजे' किसी के लिए खोलते हैं तो इसी सामान्य नियम को व्यापक सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए। पाकिस्तान एलओसी पर कोई समाजसुधारक नहीं, बल्कि आतंकवादी भेजता है, जिनके दिलों में हमारे लिए नफरत भरी होती है। उस इलाके में आतंकवादियों के मददगार और आईएसआई के एजेंट भी पकड़े जाते रहे हैं। 

क्या इन सबके बावजूद भारत सरकार को यह फैसला लेना चाहिए कि वह पाकिस्तान से बातचीत की पहल करे और एलओसी पर किसी को भी आने-जाने की छूट दे दे? उसके बाद कैसे हालात पैदा हो सकते हैं, इसका कोई अंदाजा है? ऐसे बयान स्पष्ट रूप से 'शत्रुबोध' की कमी जाहिर करते हैं, जिसकी वजह से हमें बार-बार धोखा ही मिला है।

About The Author: News Desk