बाल मुकुन्द ओझा
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संयुक्त राष्ट्र द्वारा हर साल 20 नवंबर को अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिकार दिवस अथवा सार्वभौमिक बाल दिवस मनाया जाता है। इस दिन को बचपन दिवस भी कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिकार दिवस की स्थापना 1954 में की गयी थी। इस अन्तराष्ट्रीय बाल दिवस की परिकल्पना वि. के. कृष्णा मेनन ने दी थी। यह दिवस अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता, बच्चों के प्रति जागरूकता और बच्चो के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए मनाया जाता है।
बच्चों के अधिकारों को लेकर हम आये दिन चर्चा करते है। हर कोई बच्चों पर अपना अधिकार जमाना चाहता है। बच्चों के खेलने कूदने और शिक्षा से लेकर उसके भरण-पोषण तक हर जगह बच्चों के अधिकारों को अनदेखा किया जाता है। बच्चों के अधिकार क्या हैं और कैसे हो इनकी सुरक्षा इस पर गंभीरता से मंथन की जरूरत है। आवश्यकता इस बात की है की हम कागजी कारवाही और भाषणबाजी से ऊपर उठकर धरातल पर आकर यथार्त में बच्चों के विकास की योजनाओं को अमली जमा पहनाएं ताकि उनके चेहरे पर मुस्कान आ सके।
भारत में गरीबी कुपोषण, अशिक्षा, अंधविश्वास, सामाजिक कुरीति, बाल विवाह और बॉल मजदूरी बचपन के सबसे बड़े दुश्मन है। आजादी के 76 साल के बाद भी हम इनसे निजात नहीं पा सके है। बच्चे देश का भविष्य है यह सुनते सुनते हमारे कान पक चुके है। मगर देश के कर्णधार आज तक बचपन को सुरक्षित जामा नहीं पहना पाए है। इससे अधिक हमारा दुर्भाग्य क्या हो सकता है। 1959 में बाल अधिकारों की घोषणा को 20 नवंबर 2007 को स्वीकार किया गया। बाल अधिकार के तहत जीवन का अधिकार, पहचान, भोजन, पोषण, स्वास्थ्य, विकास, शिक्षा ,मनोरंजन, नाम, राष्ट्रीयता, परिवार और पारिवारिक पर्यावरण, उपेक्षा से सुरक्षा, बदसलूकी, दुर्व्यवहार, बच्चों का गैर-कानूनी व्यापार आदि शामिल है। बाल अधिकार बाल श्रम और बाल दुर्व्यवहार की खिलाफत करता है जिससे वह अपने बचपन, जीवन और विकास के अधिकार को प्राप्त कर सकें।
बच्चों में अपराध और बाल मजदूरी के मामले में भी हमारा देश आगे है। हालांकि सरकार दावा कर रही है कि बाल मजदूरी में अपेक्षाकृत काफी कमी आई है। सरकार ने बालश्रम रोकने के लिए अनेक कानून बनाये हैं और कड़ी सजा का प्रावधान भी किया है। मगर असल में आज भी लाखों बच्चे कल कारखानों से लेकर विभिन्न स्थानों पर मजदूरी कर रहे हैं। चाय की दुकानों पर, फल-सब्जी से लेकर मोटर गाड़ियों में हवा भरने, होटल, रेस्टोरेंटों में और छोटे-मोटे उद्योग-धंधों में बाल मजदूर सामान्य तौर पर देखने को मिल जाते हैं।
भारत के संविधान में यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों से ऐसे कार्य या कारखाने आदि में नहीं रखा जाये। कारखाना अधिनियम, बाल श्रम निरोधक कानून आदि में भी बच्चों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की गई है। मगर बच्चे आज भी घरेलू नौकर का कार्य करते हैं। होटलों, कारखानों, सेवा केन्द्रों, दुकानों आदि में सरेआम और सरेराह बच्चों को काम करते देखा जा सकता है। कानून के रखवालों की आंख के नीचे बच्चे काम करते मिल जायेंगे। सरकार ने स्कूलों में बच्चों के लिए शिक्षा, वस्त्र, भोजन आदि की मुफ्त व्यवस्था की है। मगर सरकार के लाख जतन के बाद भी बाल श्रम आज बदस्तूर जारी है। नेशनल सेम्पल सर्वे संगठन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दो तिहाई लोग पोषण के सामान्य मानक से कम खुराक प्राप्त कर रहे हैं। एक गैर सरकारी संगठन की रिपोर्ट में बताया गया है कि कुपोषित और कम वजन के बच्चों की आबादी का लगभग 40 प्रतिशत भाग भारत में है।
बच्चों के सर्वांगीण विकास को मद्देनजर रखते हुए सबसे पहले बच्चों की शिक्षा पर अपना ध्यान देना होगा। बच्चों को गुणवत्ता युक्त शिक्षा समान स्तर पर मिलनी जरूरी है। सक्षम व्यक्ति अपने बच्चों को पढ़ाने में अव्वल रहता है। मगर गरीब बच्चे सरकारी स्कूलों में गुणवत्ता युक्त शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते। जिसके फलस्वरूप वे पिछड़ जाते हैं। आगे की पढ़ाई भी नहीं कर पाते और गरीब अभिभावक ऐसी स्थिति में अपने बच्चों को मजदूरी में जोत देते हैं। ऐसे बच्चे आगे जाकर अपराधों में फंसकर अपना भविष्य खराब कर लेते हैं। बच्चों को पढ़ने लिखने और खेलने कूदने से वंचित करना सबसे बड़ा अपराध है।
मौजूदा दौर में बच्चों में खेलकूद का स्थान इंटरनेट ने ले लिया है। इसका सीधा प्रभाव बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर पड़ा है। शहरों के साथ अब गांवों में भी मोबाइल की पहुँच होने से बच्चों में इंटरनेट की लत बढ़ गई है। इससे उनमें संवादहीनता का खतरा बढ़ रहा है। बच्चे के ऐसे व्यवहार को अनदेखा करने की जगह इस पर सजग और सावधान होने की जरूरत है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि इससे बच्चों का स्वाभाविक विकास बुरा प्रभाव पड़ता है।