उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने डिजिटल दुनिया के बढ़ते प्रभाव के बीच युवाओं के शारीरिक खेलों से दूर होकर डिजिटल खेलों में ज्यादा व्यस्त रहने के संबंध में जो चिंता जताई है, वह स्वाभाविक है। वास्तव में यह कई अभिभावकों की चिंता है। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे बाहर मैदान में जाएं, खेलकूद में भाग लें, प्रकृति को करीब से देखें और स्वस्थ रहें। इसके उलट, बहुत बड़ी तादाद उन बच्चों की है, जिन्हें जब मौका मिलता है, वे मोबाइल फोन या लैपटॉप की स्क्रीन पर नजरें जमाकर बैठ जाते हैं। उनकी दुनिया उस स्क्रीन तक ही सीमित रह गई है। आधुनिक तकनीक में रुचि होना गलत नहीं है। इसकी पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए, लेकिन प्रकृति से दूरी तन और मन के लिए बहुत हानिकारक होती है। इसके दुष्प्रभाव एक-दो दिनों में दिखाई नहीं देते, बल्कि महीनों, वर्षों बाद पता चलता है कि हमने बहुत कुछ गंवा दिया है। हमें प्रभु श्रीराम, श्रीकृष्ण की बाल्यावस्था के बारे में पढ़ना चाहिए। त्रेता और द्वापर युग के अन्य योद्धाओं के बारे में जानना चाहिए। वे सभी इस देश की मिट्टी में खेले-कूदे थे। प्रकृति की गोद में खेलकूद बच्चों को बलिष्ठ बनाता है, उनके स्वास्थ्य की रक्षा करता है। कई अध्ययन इस बात की पुष्टि कर चुके हैं कि जो बच्चे प्रकृति के जितने करीब रहते हैं, उनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता उतनी ही मजबूत होती है। वहीं, जो बच्चे दिन-रात स्क्रीन की दुनिया में खोए रहते हैं, जो खेलकूद में बिल्कुल भाग नहीं लेते, उन्हें स्वास्थ्य संबंधी कई समस्याएं जल्दी घेर लेती हैं।
हमारी शिक्षा व्यवस्था में खेलों को बहुत कम महत्त्व दिया गया है। बंद इमारतों में बहुत सारे बच्चों को बैठाकर उन पर विभिन्न विषयों का जरूरत से ज्यादा बोझ लाद देना और उन्हें खेलकूद संबंधी गतिविधियों से दूर रखना ... क्या यह उनके बचपन के साथ अत्याचार नहीं है? देश में कई 'स्कूल' तो ऐसे हैं, जहां खेलकूद के लिए जगह ही नहीं है। अगर सरकारें बुनियादी सुविधाओं से युक्त मैदान तैयार करने और बच्चों के लिए विभिन्न खेलकूद गतिविधियों में भाग लेना अनिवार्य करें तो देशवासी कई स्वास्थ्य समस्याओं से सुरक्षित हो सकते हैं। याद करें, अस्सी और नब्बे के दशक तक डायबिटीज कितने लोगों को होती थी? बड़े शहरों में गिनती के लोग इसके मरीज होते थे। गांवों में बुजुर्ग भी गुड़, शहद, बतासे, लड्डू खूब खाते थे। वहां शायद ही किसी को डायबिटीज होती थी। लोग खेतों में खूब पसीना बहाते थे। अपने दम पर बोझा ढोते थे। बच्चे खेत-खलिहान की ओर दौड़ते हुए जाते थे। बाद में, उनमें से कितने ही सशस्त्र बलों में भर्ती हो गए। तब सुविधाएं कम थीं, लेकिन आज की तुलना में लोग शारीरिक रूप से ज्यादा स्वस्थ थे। अब महानगरों की बात ही छोड़ें, गांव के बच्चे भी कई बीमारियों से ग्रस्त हो रहे हैं। उन्हें छोटी उम्र में नजर का चश्मा लग जाता है। कितने ही बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें युवावस्था तक पहुंचते-पहुंचते अनिद्रा, सिरदर्द, कमर दर्द, कब्ज, पथरी, बवासीर जैसी दिक्कतें परेशान करने लगती हैं। वे न तो ज्यादा गर्मी बर्दाश्त कर पाते हैं और न ज्यादा सर्दी ही उनसे सहन होती है। बरसात का मौसम, जो बच्चों को बहुत पसंद होता है, की फुहारें उन्हें बीमार कर देती हैं! वे साफ मिट्टी पर भी नंगे पांव चलने से असहज महसूस करते हैं। प्रकृति से यह दूरी उन्हें बीमार क्यों नहीं बनाएगी? हमें याद रखना होगा कि मनुष्य का शरीर प्रकृति से दूर रहने के लिए नहीं बना है। जो इससे जितना दूर जाएगा, उतना ही रोगग्रस्त होगा। बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए पढ़ाई और तकनीकी ज्ञान, दोनों जरूरी हैं। इनके साथ खेलकूद संबंधी गतिविधियों का होना भी बहुत जरूरी है। जीवन में सफलता का आनंद तभी है, जब तन और मन स्वस्थ हों। स्वास्थ्य को चौपट करने के बाद मिली सफलता बहुत घाटे का सौदा होती है।