कांग्रेस सांसद शशि थरूर द्वारा दिल्ली के संबंध में यह सवाल किए जाने कि 'क्या इसे देश की राजधानी भी रहना चाहिए', के बाद कुछ 'बुद्धिजीवी' राजधानी बदलने का सुझाव जोर-शोर से दे रहे हैं। थरूर राष्ट्रीय राजधानी में वायु प्रदूषण की वजह से पैदा हुए हालात का जिक्र कर रहे थे, लेकिन उन्होंने कोई ठोस समाधान नहीं बताया। उनकी देखादेखी सोशल मीडिया पर कई 'विशेषज्ञों' का इस बहस में शामिल होकर राजधानी को अन्यत्र ले जाने का सुझाव देना यह बताता है कि वे स्थायी समाधान ढूंढ़ने के इच्छुक नहीं हैं। बस, यह चाहते हैं कि उन्हें किसी तरह प्रदूषित हवा से थोड़ी राहत मिल जाए। भारत जैसे विशाल देश की राजधानी को किसी अन्य शहर में स्थानांतरित करना कोई हंसी-खेल नहीं है। यह बहुत ज्यादा खर्चीला काम है। इसमें महीनों नहीं, बल्कि वर्षों लग सकते हैं। इस बात की क्या गारंटी है कि जिस नए शहर को राजधानी बना देंगे, उसमें वायु प्रदूषण नहीं होगा? इन लोगों के ये सुझाव किसी भी दृष्टि से व्यावहारिक नहीं हैं, क्योंकि देश के अन्य शहरों पर भी पहले से काफी आबादी का दबाव है। वहां कई समस्याएं हैं, लोग मूलभूत सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अगर किसी शहर की वायु गुणवत्ता 'ठीक' या 'संतोषजनक' है तो वहां के निवासियों को समय रहते जागरूक हो जाना चाहिए। उन्हें ऐसा हर संभव तरीका अपनाना चाहिए, जिससे वायु गुणवत्ता की रक्षा हो। राजनेताओं और 'बुद्धिजीवियों' की जिम्मेदारी है कि वे समस्या का स्थायी समाधान बताएं। अभी टीवी चैनलों, सोशल मीडिया आदि पर हर कोई शिकायत कर रहा है कि प्रदूषण बहुत ज्यादा बढ़ गया, लेकिन इसके समाधान पर कितने लोग बात कर रहे हैं?
किसी भी देश की राजधानी दुनिया में उसकी छवि पेश करती है। जब विदेश में लोग दिल्ली के प्रदूषण के बारे में खबरें पढ़ते होंगे तो क्या सोचते होंगे? ऐसा शहर, जहां बड़े-बड़े राजनेता, अनुभवी अधिकारी, कानून के ज्ञाता, वैज्ञानिक, डॉक्टर, चिंतक और दार्शनिक रहते हैं, वहां इतना गंभीर वायु प्रदूषण कैसे हुआ? इन्हें तो बहुत पहले सतर्क हो जाना चाहिए था! अगर अस्सी या नब्बे के दशक में ही कुछ सख्त कदम उठा लिए जाते तो आज ऐसे हालात पैदा नहीं होते। निश्चित रूप से इसके लिए वे सभी राजनीतिक दल कहीं-न-कहीं जिम्मेदार हैं, जो दिल्ली की सत्ता में भागीदार रहे। अब हवा इतनी जहरीली हो गई तो सुझाव आने लगे कि राजधानी ही बदल दें! यह तो वही बात हुई कि घर के एक कमरे में आग लग गई तो उसे बुझाने और अपनों को बचाने के बजाय दूसरे कमरे में रहने का सुझाव दें! अगर आग की लपटें उस कमरे तक भी पहुंच गईं तो? उसके बाद अगली मंजिल क्या होगी? समस्या को देखकर पलायन करना कोई समाधान नहीं है, बल्कि इससे भविष्य में समस्या गंभीर होगी तथा कई और समस्याएं पैदा होंगी। दिल्ली के वायु प्रदूषण से सबसे ज्यादा आम और गरीब वर्ग पीड़ित है। संपन्न लोगों ने घरों में वायु शोधक उपकरण लगवा लिए हैं। ये उन्हें कितनी और कब तक राहत दे पाएंगे? उन्हें कभी तो बाहर की हवा में सांस लेना होगा। यह आजमाइश का वक्त है। अब राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों को अपने जीवन से संदेश देना होगा। उन्हें जीवन शैली में सादगी लानी होगी। कारों के काफिले को घटाना होगा। सार्वजनिक परिवहन को मजबूत करना होगा। सोचिए, उस व्यक्ति के शब्दों का जनता पर कितना असर होगा, जो वायु गुणवत्ता पर तो खूब चिंता जताए, उसके बाद धुआं छोड़ती हुई कार में बैठकर अपने घर जाए! अगर महात्मा गांधी के सामने वायु प्रदूषण की ऐसी विकराल समस्या आई होती तो वे कोरे शब्दों से नहीं, बल्कि अपने जीवन से ऐसा संदेश देते, जिसे आम जनता खुशी-खुशी दिनचर्या का हिस्सा बना लेती। राजनेता और अधिकारी भी अपने जीवन से बड़ा संदेश दें। जुर्माना, सम-विषम नियम, पलायन जैसे सुझावों से स्थायी समाधान नहीं होगा।