ईवीएम पर संदेह क्यों?

जीत गए तो नेताओं का करिश्मा है, अगर हार गए तो ईवीएम में गड़बड़ है!

ईवीएम हरियाणा में खराब थीं तो जम्मू-कश्मीर में ठीक कैसे हो गईं?

मतपत्रों के जरिए मतदान की पुरानी व्यवस्था बहाल करने के आग्रह को लेकर दायर की गई एक याचिका पर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी - '... जब आप चुनाव जीतते हैं तो ईवीएम से छेड़छाड़ नहीं होती। जब आप चुनाव हार जाते हैं तो ईवीएम से छेड़छाड़ हो जाती है।' - के बाद अब ऐसी बेबुनियाद मांगों पर विराम लग जाना चाहिए। ईवीएम के नतीजों पर संदेह जताकर वापस पिछली सदी के तौर-तरीकों के अनुसार चुनाव कराने की मांग उस वक्त तेज हो जाती है, जब चुनाव नतीजे आते हैं। अगर चुनाव जीत गए तो यह नेताओं का करिश्मा है, अगर हार गए तो ईवीएम में गड़बड़ है ... नेताओं और उनके राजनीतिक दलों का प्रदर्शन बेमिसाल है, बस ईवीएम आड़े आ गई, अन्यथा छप्परफाड़ वोट बरसते!' हारने के बाद ईवीएम को दोष देने वाले नेताओं को चाहिए कि वे अपने प्रदर्शन का मूल्यांकन करें, अपने संगठन की खामियां सुधारें। जनता ने आपको क्यों नहीं स्वीकारा, इसका पता लगाएं। हर चुनावी शिकस्त के बाद ईवीएम को जिम्मेदार ठहरा देने से काम नहीं चलेगा। अगर आरोपों के अनुसार, महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में ईवीएम खराब थीं तो झारखंड में सही कैसे हो गईं? ईवीएम हरियाणा में खराब थीं तो जम्मू-कश्मीर में ठीक कैसे हो गईं? ईवीएम ने राजस्थान में धोखा दे दिया तो तेलंगाना में साथ कैसे निभा दिया? जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की मतगणना के रुझान आ रहे थे तो एक वरिष्ठ नेता को इसमें 'बड़ी साजिश’ और ‘कुछ गड़बड़’ नजर आने लगी थीं! वे यह स्वीकार करने को तैयार नहीं थे कि एकनाथ शिंदे और अजित पवार के नेतृत्व में चुनाव मैदान में उतरे उम्मीदवार जीत सकते हैं। उनका तर्क था कि महाराष्ट्र की जनता सत्ता पक्ष से नाराज थी, लिहाजा चुनाव में विजयश्री का वरदान विपक्ष को मिलना चाहिए था।

प्राय: वरिष्ठ नेतागण अपने समर्थकों से घिरे रहते हैं। वे जब कभी 'जनसंपर्क' के लिए निकलते हैं तो आम लोग शिष्टाचारवश उनकी थोड़ी-बहुत सराहना कर देते हैं। जब चुनावी जनसभाओं में भीड़ उमड़ती है तो नेतागण गद्गद हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि इस बार मैदान फतह कर ही लेंगे। चूंकि जनता भलीभांति जानती है कि नेतागण चुनावी मौसम में बड़े-बड़े वादे करते हैं। वे चुनाव जीतने के बाद उन पर कितने खरे उतरेंगे, यह बताने की ज़रूरत नहीं है। जनसंपर्क में आश्वासन और जनसभा में उमड़ी भीड़ को वोट मिलने की गारंटी बिल्कुल नहीं समझना चाहिए। जनता कई बिंदुओं के आधार पर वोट डालती है। राजनीति के बड़े-बड़े धुरंधर जनता का मिज़ाज समझने में मात खा जाते हैं। अगर इस साल हुए लोकसभा चुनाव से लेकर महाराष्ट्र-झारखंड विधानसभा चुनाव तक के एग्जिट पोल के आंकड़े देखें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि इनके ज्यादातर विश्लेषक हवा का रुख नहीं भांप पाए। चुनाव नतीजों के बाद चाहे कोई इसे अपने नेताओं का करिश्मा बताए या ईवीएम में खोट ढूंढ़े, हकीकत यह है कि आम जनता अब ज्यादा जागरूक है, वह नेताओं और एग्जिट पोल्स के विश्लेषकों को चौंकाने वाले नतीजे दे रही है। इसमें ईवीएम का 'दोष' सिर्फ इतना है कि अब उसके जरिए चुनाव हो रहे हैं। कोई नेता हार का ठीकरा उस पर फोड़ सकता है। अगर ये चुनाव मतपत्रों से होते तो भी हारने वाले कई नेता असंतुष्ट ही रहते। वे उस स्थिति में ये दावे करते हुए न्यायालय चले जाते कि 'हमारे मतपत्र फाड़ दिए गए या गायब कर दिए गए, हमारी पेटी चोरी हो गई या बदल दी गई, लिहाजा चुनाव कराने की कोई और प्रणाली लाई जाए!' हारने वाले राजनीतिक दल ईवीएम के आंकड़ों में हेरफेर के दावे खूब करते हैं, लेकिन आज तक न्यायालय में कोई पुख्ता प्रमाण पेश नहीं कर पाए। यह अलग बात है कि एक चुनाव हारने के बाद जब वे दूसरा चुनाव जीत जाते हैं या उसमें उनका प्रदर्शन अच्छा रहता है, तब वे ईवीएम का विरोध नहीं करते, बल्कि नतीजों को खुशी-खुशी स्वीकार कर लेते हैं। जनता यह देख रही है, सबकुछ समझ रही है। अगर नेतागण जनता के बीच जाएं, उसकी आवाज बनें, समस्याओं का समाधान करें तो ईवीएम में खोट ढूंढ़ने की नौबत ही न आए।

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