इस साल ऑस्ट्रेलिया में आतंकवाद संबंधी विभिन्न घटनाओं में बड़ी संख्या में नाबालिगों का शामिल होना बताता है कि यह देश भविष्य में आंतरिक सुरक्षा से जुड़ीं गंभीर चुनौतियों का सामना कर सकता है। ऑस्ट्रेलिया ही नहीं, यूरोप के कई देश आज इस चुनौती का सामना कर रहे हैं। उनकी सरकारों ने बहु-सांस्कृतिक समाज बनाने और अत्यधिक उदारवादी दिखने की कोशिश में पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, सीरिया, इराक, लीबिया, फिलिस्तीन जैसे देशों के लोगों को खूब 'शरण' दी। सरकारों का मानना था कि जो लोग आएंगे, वे समाज में घुलमिल जाएंगे। अब ये सरकारें अपने फैसलों पर पछताती होंगी। खासकर पाकिस्तानियों ने वहां जाकर जिस तरह उनके ताने-बाने को तहस-नहस किया, उससे स्थानीय लोगों में गहरा आक्रोश है। इन देशों की सरकारों को अपनी खुफिया एजेंसियों पर बड़ा नाज़ था। आज भी ये ऐसे बयान देती रहती हैं कि हम फलां जगह के घटनाक्रम पर करीब से नजर रख रहे हैं! यह अलग बात है कि ये एजेंसियां अपने ही देश में नजर रखना भूल गईं। अगर ये दुनिया पर गहरी नजर रखने के बजाय अपने चौक-चौराहों पर नजर रखतीं तो वहां कट्टरपंथ जड़ें नहीं जमाता। आज ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों में किशोर और नौजवान कट्टरपंथ से प्रभावित हो रहे हैं। इसमें इंटरनेट की बड़ी भूमिका है। ऐसे कई सोशल मीडिया चैनल बने हुए हैं, जहां कट्टरपंथ और आतंकवाद संबंधी वीडियो पोस्ट किए जाते हैं। कई बार वीडियो को फर्जी दावे के साथ इस तरह पेश किया जाता है, जिससे लोगों में भारी भ्रम फैलता है।
ऑस्ट्रेलियाई संघीय पुलिस ने पिछले चार वर्षों में नाबालिगों से जुड़े ऐसे 35 मामलों की जांच की है। यह जानकर आश्चर्य होता है कि आरोपियों में सबसे छोटा बच्चा सिर्फ 12 साल का था! ज्यादातर मामलों में आरोप तय किए गए हैं। यही नहीं, 14 और 16 साल के दो किशोरों को दोषी भी ठहराया गया है। इन बच्चों की यह उम्र खेलने, पढ़ने और नए दोस्त बनाने की थी। इनके मन में कट्टरपंथ का जहर किसने घोला? इन आंकड़ों का अध्ययन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि आतंकवाद की वजह सिर्फ गरीबी नहीं है। यह कई वजहों में से एक वजह हो सकती है। जो किशोर और युवा गरीबी से जूझ रहे हैं, जिन्हें पढ़ाई-लिखाई का माहौल नहीं मिल रहा, उन्हें कट्टरपंथी तत्त्व ज्यादा आसानी से बहला-फुसला सकते हैं, लेकिन वे उन किशोरों व युवाओं को भी गुमराह कर सकते हैं, जो गरीब नहीं हैं, जिन्हें पढ़ाई-लिखाई का माहौल मिल रहा है। ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी जैसे देश अपने नागरिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य और गुजर-बसर के लिए खूब सुविधाएं देते हैं। इसके बावजूद वहां कई किशोरों और युवाओं का कट्टरपंथ की राह पर चले जाना बताता है कि समस्या की जड़ कहीं और है। इन देशों को उन उपदेशकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी होगी, जो नागरिकों के मन में नफरत का बीज बो रहे हैं। दूसरे समुदायों को कमतर समझना, उनकी आस्था का सम्मान नहीं करना, उनकी संस्कृति की खिल्ली उड़ाना ... जैसे कृत्यों को गंभीरता से लेना होगा। ब्रिटेन ने अस्सी और नब्बे के दशक में पाकिस्तानियों को खूब वीजे बांटे थे। उनमें से कई लोगों ने वहां जाकर नागरिकता ले ली। यह सिलसिला अब भी जारी है। विश्लेषकों का कहना है कि जब तक पाकिस्तानियों को ब्रिटेन का वीजा नहीं मिल जाता, वे खुद को बहुत आधुनिक, उदारवादी, सबकी आस्था का सम्मान करने वाले, मानवाधिकारों के पैरोकार ... के तौर पर पेश करते हैं। एक बार जब उन्हें नागरिकता मिल जाती है तो वे लंदन में भी उसी शासन की मांग करने लगते हैं, जो पाकिस्तान और अफगानिस्तान में है। अगस्त 2021 में जब तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा किया था तो ब्रिटेन में कई लोगों ने खुशियां मनाई थीं। हालांकि वे खुद कंधार जाकर रहना पसंद नहीं करते। वे सुविधाएं ब्रिटेन वाली चाहते हैं, लेकिन लंदन को लाहौर या कंधार बनाना चाहते हैं। अगर इन देशों की सरकारों ने समय रहते राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक चेतना का रास्ता न अपनाया तो भविष्य में हालात बिगड़ सकते हैं।