हार का सामना करना भी सिखाएं

हमने बच्चों को ऐसी परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार ही नहीं किया

वे करें तो क्या करें?

टेनिस खिलाड़ी आंद्रे अगासी ने इन शब्दों के साथ बड़ी गहरी बात कही है कि 'खेल शिक्षा का हिस्सा बने, क्योंकि यह हारने का महत्त्व सिखाता है।' इस समय हमारी शिक्षा पद्धति को कुछ बड़े सुधारों की जरूरत है। इसमें खेलों को शामिल करते हुए विद्यार्थियों में सीखने और बेहतर बनने की भावना मजबूत करनी होगी। बच्चों को जीतना सिखाना चाहिए। इसके साथ उन्हें हार का सामना करना भी सिखाना चाहिए। जो विद्यार्थी अच्छे अंक लेकर आता है, उसका प्रदर्शन प्रशंसनीय होता है। जो विद्यार्थी अच्छे अंक लेकर नहीं आता, उसे डांटने, अपमानित करने के बजाय इस तरह प्रोत्साहित करना चाहिए, जिससे वह भविष्य में बेहतर प्रदर्शन करे। जहां तक खेलों को शिक्षा का हिस्सा बनाने का सवाल है तो हमें एक नजर स्कूल भवनों और उनमें मौजूद खेल सामग्री पर डालनी चाहिए। कितने ही स्कूल तो ऐसे हैं, जहां न खेलकूद के लिए पर्याप्त जगह है और न ही खेल सामग्री है। छोटे-छोटे कमरों में कई बच्चों को बैठाकर पढ़ाई के नाम पर किताबें रटाने का अभ्यास मजबूत नागरिक कैसे तैयार करेगा? प्राय: ऐसे स्कूल प्रबंधन के पास संसाधनों का अभाव होता है। अगर संसाधन होते हैं तो समय का अभाव होता है। रोजाना खेलकूद के लिए समय देने लगे तो पाठ्यक्रम कब पूरा होगा? अगर किसी वजह से परीक्षा परिणाम कमजोर रह गया तो पूरा दोष शिक्षक पर डाल दिया जाएगा। ऐसे में वह यही चाहेगा कि समय पर पाठ्यक्रम पूरा कराए और विद्यार्थी किताबों में व्यस्त रहें। आज बच्चों को भी कमर दर्द, सिरदर्द, मधुमेह जैसी स्वास्थ्य समस्याएं सताने लगी हैं, जो पहले बड़े-बुजुर्गों को ही होती थीं। प्रकृति से दूरी, खेलकूद एवं व्यायाम जैसी गतिविधियों में शामिल न होना और पढ़ाई में बेहतर प्रदर्शन करने के अत्यधिक दबाव के कारण बच्चों का स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है।

हमारी शिक्षा व्यवस्था में परीक्षा प्रणाली को इस तरह विकसित किया जाए कि 'फेल' होने वाले विद्यार्थी अगली बार ज्यादा उत्साह के साथ तैयारी करें। 'फेल' होने का ठप्पा बहुत पीड़ादायक होता है। कोई बच्चा परीक्षा में सही उत्तर नहीं दे पाया और 'पास' होने से वंचित रह गया तो इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि उसमें प्रतिभा का अभाव है। बेशक उसे पढ़ाई की ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए था, परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन करना चाहिए था। प्राय: ऐसे बच्चों को घर-परिवार से लेकर स्कूलों में भी ये ताने सुनने पड़ते हैं- 'तुम्हारा कोई भविष्य नहीं है ... बड़े होकर खेती या मजदूरी ही करोगे ... तुम्हारे दिमाग में कोई बात नहीं घुसती ... तुम्हारी पढ़ाई से पैसों की बर्बादी ही हो रही है!' इससे बच्चे का मनोबल टूटता है। ऐसे समय में तो उसके मनोबल को मजबूत करते हुए हार का सामना करना सिखाना चाहिए। क्या इतिहास में ऐसे उदाहरणों की कमी है, जब किसी परीक्षार्थी को पहली बार विफलता मिली, लेकिन उसके बाद उसने शानदार प्रदर्शन किया? कई बार बहुत प्रतिभाशाली बच्चे भी उम्मीदों के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाते। वह स्थिति उन्हें गहरे तनाव की ओर धकेल सकती है। उन्हें लगता है कि इस बार कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया! 'अब माता-पिता को क्या बताऊंगा, शिक्षकों को क्या जवाब दूंगा, दोस्तों से क्या कहूंगा?' हमने बच्चों को ऐसी परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार ही नहीं किया। वे करें तो क्या करें? परीक्षा परिणाम देखकर कई लोग कह देते हैं कि पढ़ाई नहीं की होगी! पिछले कुछ वर्षों में राजस्थान के कोटा शहर में कोचिंग करने वाले कई बच्चों ने आत्महत्या जैसा खौफनाक कदम उठा लिया। अब वहां प्रशासन और कोचिंग संचालक ऐसे उपायों को लागू करने की कोशिश कर रहे हैं, जो बच्चों के मनोबल को बढ़ाएं, उन्हें विफलता का सामना करना सिखाएं। स्कूलों की प्रार्थना सभाओं में भी ऐसे मुद्दों को लेकर प्रेरक बातें बतानी चाहिएं। विद्यार्थी तन और मन से मजबूत होंगे तो भविष्य में राष्ट्र को और मजबूत बनाएंगे।

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