बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के विधि सलाहकार आसिफ नजरुल ने विजय दिवस के उपलक्ष्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सोशल मीडिया ‘पोस्ट’ पर जो प्रतिक्रिया दी, वह अत्यंत निंदनीय है। उनका यह बयान घोर कृतघ्नता ही माना जाएगा कि उस जीत में ‘भारत केवल एक सहयोगी था, इससे ज्यादा कुछ नहीं।’ आसिफ की यह टिप्पणी न केवल भारत का, बल्कि उन सैनिकों का भी अपमान है, जिन्होंने बांग्लादेश की आज़ादी के लिए अपना लहू दिया था। इस पड़ोसी देश के विधि सलाहकार का इतिहास-ज्ञान शून्य प्रतीत होता है। उन्हें वर्ष 1971 के युद्ध का इतिहास पढ़ना चाहिए। पाकिस्तानी फौज पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में न केवल कत्ले-आम कर रही थी, बल्कि महिलाओं से दुष्कर्म भी कर रही थी। लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी ने अपने जवानों को खुली छूट दे रखी थी। यही नहीं, वह ऐसे दुराचारियों की पीठ भी थपथपाता था। आसिफ को भारत और भारतीय सेना का कृतज्ञ होना चाहिए। अगर भारत के तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की गुहार न सुनी होती तो आज न बांग्लादेश होता और न आसिफ नजरुल उसकी सरकार के विधि सलाहकार होते। भारतीय थल सेना, नौसेना और वायुसेना के वीर योद्धाओं ने अपनी जान की बाज़ी लगाई थी, तब जाकर बांग्लादेश को आज़ादी मिली थी। आसिफ को ज्यादा जहमत उठाने की जरूरत नहीं, वे इंटरनेट पर भारतीय सेना के अरुण खेत्रपाल, भीम बहादुर थापा, राजेंद्र सिंह राजावत, सुरेश गजानन सामंत, गोपाल कृष्ण अरोड़ा, सुगन सिंह, सज्जन सिंह जैसे योद्धाओं के बारे में पढ़ें। ऐसे अनेक सैनिकों ने दृढ़ संकल्प के साथ हुंकार भरी थी, पाकिस्तान की गोलियां अपने सीने पर झेली थीं, तब बांग्लादेश बना था।
आसिफ नजरुल की टिप्पणी बताती है कि मोहम्मद यूनुस और उनकी मंडली ने पूरी मंशा बना ली है कि उनकी ओर से भारत का विरोध ही किया जाएगा। अब तक बांग्लादेश में जिसकी भी सरकार रही, उसने छोटे-मोटे विवादों को लेकर कई बार तीखी टीका-टिप्पणी जरूर की, लेकिन यह कभी नहीं कहा कि उनकी आज़ादी में भारत की भूमिका एक सहयोगी से ज्यादा कुछ नहीं थी। बांग्लादेश ने पूर्व में ऐसे कई भारतीय नागरिकों को सम्मानित किया, जिन्होंने उसकी आज़ादी के संग्राम में उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी। जिन लोगों ने वह संग्राम अपनी आंखों से देखा है, वे जानते हैं कि भारतीय सैनिकों ने किस तरह पाकिस्तानी फौज की अकड़ निकाल दी थी। बांग्लादेश के इतिहास में 1971 का साल बहुत खून-खराबे का साल रहा है। उस दौरान पाकिस्तानी फौज के हाथों लाखों लोग मारे गए थे। अगर भारत हस्तक्षेप नहीं करता और पूर्वी पाकिस्तानियों को उनके हाल पर छोड़ देता तो क्या होता? इसमें कोई संदेह नहीं कि उस सूरत में मृतकों का आंकड़ा करोड़ों में होता है। खुद आसिफ नजरुल किसी पाकिस्तानी फौजी की बंदूक से निकली गोली के शिकार हो जाते, जिनकी उम्र तब लगभग पांच साल थी। बांग्लादेश के लिए एक और दुर्भाग्य की बात है कि ये महाशय ख़ुद को लेखक, उपन्यासकार, स्तंभकार, राजनीतिक टिप्पणीकार और कानून के प्रोफेसर बताते हैं। ये दर्जनभर किताबें लिख चुके हैं। इतना ही नहीं, ये पत्रकारिता में भी हाथ आजमा चुके हैं। इसके बाद इनका यह हाल है! इन्हें बांग्लादेश की आज़ादी में भारत के योगदान के बारे में नहीं पता है! अगर ऐसे ‘बुद्धिजीवी’ बांग्लादेश में अंतरिम सरकार के विधि सलाहकार बनाए गए हैं तो युवाओं का भविष्य चौपट ही समझें। जिन्हें अपने देश का इतिहास नहीं मालूम, वे भविष्य कैसा बनाएंगे?