उच्चतम न्यायालय ने यह कहकर एक बार फिर हिंदू विवाह परंपरा की प्रतिष्ठा एवं महत्त्व को रेखांकित किया है कि 'यह एक पवित्र प्रथा है, जो परिवार की नींव है, न कि कोई व्यावसायिक समझौता है।' भारतीय संस्कृति में विवाह को अत्यंत पवित्र संस्कार माना गया है। यह भोग-विलास और कामनाओं की पूर्ति का माध्यम नहीं है। हमारे देश में विवाह के बिना परिवार की कल्पना ही नहीं की जा सकती। जब परिवार की बात आती है तो भगवान शिव एवं माता पार्वती हमारे आदर्श होने चाहिएं, न कि भोगवाद पर आधारित पाश्चात्य जीवन पद्धति में रचे-बसे सेलिब्रिटी। उच्चतम न्यायालय के इन शब्दों में मौजूदा हालात से जुड़ी कड़वी हकीकत झलकती है कि 'कानून के सख्त प्रावधान महिलाओं की भलाई के लिए हैं, न कि उनके पतियों को दंडित करने, धमकाने, उन पर हावी होने या उनसे जबरन वसूली करने के लिए।' न्यायालय ने यह टिप्पणी अलग-अलग रह रहे एक दंपति के विवाह को समाप्त करते हुए की। उसके ये शब्द ऐसे कई दंपतियों के मामलों के लिए नज़ीर हैं, जो तलाक के लिए अदालतों में पेश हो रहे हैं। खासकर अतुल सुभाष मामले के बाद यह बहस बहुत ज्यादा हो रही है कि हमें अपने पारिवारिक मूल्यों को बचाना होगा। हमारे सामाजिक जीवन में ऐसी कई विकृतियां आ गईं, जिनसे परिवार टूट रहे हैं। अब यह कहने से काम नहीं चलेगा कि 'नहीं, हमारी संस्कृति तो सबसे महान है, लिहाजा हमारे यहां कोई समस्या पैदा नहीं हो सकती!' समस्या है। हम इसे स्वीकार करेंगे, उसके बाद ही आगे बढ़ सकेंगे।
जब से अतुल सुभाष का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ है, उसके नीचे लोगों की टिप्पणियां एक खास ट्रेंड की ओर इशारा करती हैं। हमें उन्हें बहुत गंभीरता से लेना होगा। वहां युवक क्या लिख रहे हैं? एक-दो नहीं, बल्कि हजारों की तादाद में युवक लिख रहे हैं कि दादी-दादा, माता-पिता को देखकर विवाह पर बहुत गहरा विश्वास था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। उन्हें भय है कि कहीं उनके साथ वह सब न हो जाए, जो अतुल सुभाष के साथ हुआ था! कई उच्च शिक्षित युवक, जिनकी अच्छी-खासी कमाई है और एक-दो साल में विवाह करना चाहते थे, अब अपने फैसले पर पुनर्विचार कर रहे हैं। एक युवक लिखता है, 'मैंने पढ़ाई में कड़ी मेहनत की है। मेरे मां-बाप ने अपना पेट काटकर मेरे कॉलेज की फीस भरी थी। अब मेरी कमाई पर उनका हक है। मैं इसे मुकदमेबाजी में बर्बाद नहीं करना चाहता, मैं अतुल सुभाष नहीं बनना चाहता!' ऐसी आशंकाओं की सूची बहुत लंबी है। अब समय आ गया है कि सरकार पुरुषों के वैवाहिक जीवन से संबंधित अधिकारों के लिए भी उचित कदम उठाए। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि देश में कई महिलाओं के साथ वैवाहिक जीवन में अत्याचार और उत्पीड़न की घटनाएं हुई हैं। उन्हें जरूर न्याय मिलना चाहिए। उनके अधिकारों की रक्षा के लिए पर्याप्त कानून हैं, लेकिन पुरुष भी समाज का हिस्सा है। उसके साथ अत्याचार और उत्पीड़न की कोई घटना होती है तो उसे न्याय मिलना चाहिए। महिला हो या पुरुष, जो पीड़ित है, जिसके अधिकारों का हनन हुआ है, उसे जरूर न्याय मिलना चाहिए। सिर्फ यह कह देना काफी नहीं है कि 'गलत हुआ', 'दु:खद है', 'नहीं होना चाहिए था'। परिवारों में संस्कारों से दूरी और धनार्जन को सफलता का एकमात्र पैमाना मान लेना भी कई समस्याओं को जन्म दे रहा है, जिसकी ओर सबको ध्यान देना होगा। उच्च शिक्षा, अच्छी कमाई, तकनीकी ज्ञान का अपनी जगह महत्त्व है और रहेगा। इसके साथ परिवार में सामंजस्य स्थापित करना, रिश्तों में मधुरता बनाए रखना भी सीखना होगा। अगर उच्च शिक्षा के बाद खूब धन कमा लिया, लेकिन जीवन में शांति न हो तो उस सफलता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है।