मोबाइल फोन छीन रहा बचपन

बच्चों द्वारा मोबाइल फोन के इस्तेमाल को लेकर मर्यादाएं तय करनी जरूरी हैं

माता-पिता को बच्चे की ऑनलाइन गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिए

बच्चों द्वारा किए जा रहे मोबाइल फोन के इस्तेमाल को सीमित करने के लिए गुजरात सरकार की पहल स्वागत-योग्य है। इस संबंध में स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करने चाहिएं, ताकि गुजरात के बच्चों का भविष्य बेहतर हो, साथ ही उनके अनुभवों से अन्य राज्यों की सरकारों के लिए भी इस दिशा में कदम बढ़ाने में आसानी हो। बेशक 'स्क्रीन' पर ज्यादा समय बिताना बच्चों के लिए अच्छा नहीं है। एक ओर जहां इससे सेहत पर बुरा असर पड़ता है, दूसरी ओर पढ़ाई का भी काफी नुकसान होता है। इन दिनों ऐसे बहुत उदाहरण देखने को मिल रहे हैं, जिनमें पाया जाता है कि बच्चे ने सालभर खूब मोबाइल फोन चलाया, जब परीक्षा परिणाम आया तो सबकुछ चौपट हो गया। कुछ बच्चे तो इससे भी चार हाथ आगे निकल गए हैं। वे फर्जी नाम और फर्जी पहचान के साथ अकाउंट बनाकर ऑनलाइन गेम और सट्टा खेल चुके हैं। बिहार के एक गांव का शख्स नौकरी के सिलसिले में किसी खाड़ी देश गया था। वहां उसने खूब मेहनत-मशक्कत की, ताकि उसके दोनों लड़के पढ़-लिख जाएं। उसने उन्हें बढ़िया मोबाइल फोन भी दिलाया, जिससे पढ़ाई में मदद मिले। खुद को अस्थमा होने के बावजूद बच्चों की जरूरतों का ध्यान रखा और उनकी उच्च शिक्षा के लिए अपने बैंक खाते में छह लाख रुपए जमा किए। एक दिन बच्चों ने मोबाइल फोन पर ऑनलाइन गेम का वीडियो देखा। उसमें लाखों-करोड़ों रुपए जीतने के 'तरीके' बताए गए थे। बच्चों ने वह गेम डाउनलोड किया और इनाम जीतने के लिए पिता के बैंक खाते से रुपए लगाने लगे। उन्होंने शुरुआत में कुछ रुपए जीते। एक दिन ऐसा दांव लगा कि जो रकम जीती थी, वह तो हारे ही, पिता ने जो छह लाख रुपए जोड़कर रखे थे, वे भी हार गए।

ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनसे पता चलता है कि बच्चों द्वारा मोबाइल फोन के इस्तेमाल को लेकर मर्यादाएं तय करनी जरूरी हैं। कुछ माता-पिता, जो खुद सोशल मीडिया पर बहुत सक्रिय हैं, वे 'हास्य' और 'मनोरंजन' के नाम पर बच्चों को वीडियो में शामिल करते हैं। इससे उस बच्चे का लगाव भी मोबाइल फोन के साथ होना स्वाभाविक है। जब वह अपनी पढ़ाई की जगह मोबाइल फोन पर ज्यादा समय बिताने लगेगा तो माता-पिता उसे कैसे रोकेंगे, जबकि वे खुद रील देखने में व्यस्त रहते हैं? बच्चा किससे प्रेरणा लेगा? 'सुधार' की शुरुआत तो बड़ों को खुद से करनी चाहिए। प्राय: यह देखने में आता है कि जब एकल परिवारों में बच्चे के लिए माता-पिता के पास समय नहीं होता तो वह मोबाइल फोन से 'दोस्ती' कर लेता है। राजस्थान में एक सरकारी अधिकारी, जिनके पति करोड़पति कारोबारी हैं, के पांच वर्षीय बेटे को मोबाइल फोन चलाने की ऐसी लत लग चुकी है कि वह पढ़ाई ही नहीं, खाना-पीना भी भूल जाता है। उसे अपने कमरे में मोबाइल फोन और इंटरनेट मिल जाए, इसके बाद और कुछ नहीं चाहिए। माता-पिता अपने उस इकलौते बेटे की सुख-सुविधाओं में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहते। लड़के के पास अपनी मां के ऑनलाइन शॉपिंग अकाउंट संबंधी पूरी डिटेल है। जब वह घर में अकेला होता है तो ऑनलाइन ऑर्डर देकर चीजें मंगवा लेता है। उसे लगता है कि हर चीज हासिल करना बहुत आसान है, चूंकि इसके लिए सिर्फ ऑनलाइन ऑर्डर देना पड़ता है! स्कूल में उसका स्वभाव आक्रामक है। जब घर में कोई मेहमान आता है तो वह लड़का उससे अभद्रता करने से नहीं हिचकता। उसकी बातों को माता-पिता हंसकर टाल देते हैं। यह मानसिकता उसे भविष्य में किस राह पर लेकर जाएगी, उसे कैसा नागरिक बनाएगी? क्या माता-पिता का कर्तव्य नहीं है कि वे उसकी ऑनलाइन गतिविधियों पर नजर रखें? ऐसे मामलों में अब सरकारों को सख्ती दिखानी होगी। बच्चों को समझाना होगा कि यह समय अच्छी आदतें सीखने, खेलकूद में भाग लेने और पढ़ाई-लिखाई की ओर ध्यान देने के लिए है। इसे मोबाइल फोन की स्क्रीन देखते हुए बिता दिया तो खुद का भारी नुकसान कर लेंगे। बचपन बीत जाने के बाद वापस नहीं आएगा।

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