बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के महालक्ष्मी लेआउट स्थित चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन संघ के तत्वावधान में साेमवार काे प्रवचन में आचार्यश्री विमलसागरसूरीश्वरजी ने कहा कि धर्म में धन की नहीं, भावनाओं की प्रधानता हाेती है। भगवान या आराध्य से कुछ मांगने की इच्छा जगे ताे जीवन की शांति, सद्गुणाें का वरदान, सुसंस्कारी परिवार और आध्यात्मिक उन्नति मांगनी चाहिए, तभी वाे साधना-आराधना सार्थक बनती है।
इस प्रकार ही अपने आराध्य की उपासना का काेई औचित्य सिद्ध हाेता है। धन, सामग्री, वर्ण अथवा व्यक्ति से धर्म काे ताेला नहीं जा सकता, अंतःक्रिया की शुद्धि और चित्तवृत्तियाें के निराेध में धर्म जीवंत बनता है। इसीलिए बड़े-बड़े बादशाहाें के समक्ष भी धर्म के धारक त्यागी-वैरागी साधु-संत पूजनीय हाेते हैं।
मनुष्य धर्म के नाम पर जितना अधिक बहिर्गमन करता है अथवा धर्म काे दिखावे में लाने की चेष्टा करता है, उतना ही वह भीतर से धर्म से रिक्त हाेता चला जाता है।
आचार्यश्री विमलसागर सूरीश्वरजी ने कहा कि ज्यादातर लाेग संसार की भाैतिक याचनाओं और तुच्छ कामनाओं के लिए अपने आराध्य के चरणाें में जाते हैं, जबकि हकीकत में निर्मल भाव समर्पित भक्त बनकर से भगवान या आराध्य की उपासना करनी चाहिए।
भाेग-विलास और संपत्ति की तुच्छ याचनाओं तथा कामनाओं के लिए भगवान के पास जाना नादानी है। भगवान की भक्ति व धर्म की आराधना ताे मानसिक शांति, जीवन की पवित्रता और आध्यात्मिक उन्नति के लिए हाेती है।
गणि पद्मविमलसागरजी ने सायंकालीन ज्ञानसत्र में जिज्ञासुओं काे तात्विक मार्गदर्शन दिया। चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन संघ के संघ के अध्यक्ष नरेश बंबाेरी व अन्य सदस्याें ने वर्ष 2026 के वर्षावास हेतु आचार्य विमलसागरसूरीश्वरजी ने निवेदन किया।