केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह कहकर देश की प्रवासन नीति बहुत ही आसान शब्दों में बयान कर दी कि 'भारत कोई धर्मशाला नहीं है कि कोई भी जब चाहे, यहां आकर रह जाए।' बेशक देश को यह अधिकार है कि वह यहां आने वाले हर व्यक्ति की जांच-पड़ताल करे। इस बात का हिसाब रखने में क्या बुराई है कि जो लोग सरहद पार से यहां आएं, उनकी सही-सही तादाद कितनी है? पुराने ज़माने में धर्मशालाओं में रुकने के नियम बहुत आसान रहे होंगे। अब कोई व्यक्ति धर्मशाला में एक घंटा भी आराम करना चाहे तो उससे पूछताछ की जाती है, पहचान संबंधी दस्तावेज लिया जाता है और वापसी का समय भी लिखा जाता है। अगर कोई व्यक्ति वीजा-पासपोर्ट के साथ जायज तरीके से इधर आता है और भारत की बेहतरी के लिए योगदान देता है तो उस पर किसी को आपत्ति नहीं है। समस्या उन लोगों के आने से पैदा होती है, जो कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं करते और घुसपैठ कर यहां के संसाधनों का उपभोग करते हैं। उनमें से कई तो आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं। कौनसा राज्य है, जहां बांग्लादेशी या रोहिंग्या नहीं मिलते? इनके तो ऐसे हिमायती सक्रिय हैं, जो अदालतों में जाकर इन्हें तमाम सुविधाएं दिलाने के लिए सरकार पर दबाव डालते हैं! भले ही देश के नागरिक मूलभूत सुविधाओं को तरसें, लेकिन घुसपैठियों के कल्याण में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए। यह दुर्भाग्य का विषय है कि जब कभी सरकार ऐसे घुसपैठियों के खिलाफ सख्ती दिखाने की बात करती है, कुछ कथित बुद्धिजीवी तुरंत मोर्चा संभाल लेते हैं। ये इनके पक्ष में बड़ी भावुक दलील देते हैं कि 'हम तो बड़े उदार लोग हैं, हमने बड़ा दिल दिखाते हुए सबके लिए दरवाजे खोले हैं, अगर हम सख्त रवैया अपनाएंगे तो दुनिया क्या कहेगी?' अगर हम उदार हैं तो क्या पूरी दुनिया को न्योता दे दें?
दुनिया में मानवाधिकारों का सबसे ऊंचा राग अलापने वाला अमेरिका अपनी जमीन पर घुसपैठियों को बर्दाश्त नहीं कर रहा। वह ऐसे लोगों को जंजीरों में जकड़कर स्वदेश रवाना कर रहा है। यह बिल्कुल अनुकूल समय है, जब भारत को घुसपैठियों के मामले में खूब सख्ती दिखानी चाहिए। हमारे देश में घुसपैठियों का मुद्दा दशकों से चर्चा में है। क्या कभी सोचा है कि ये यहां आने के लिए इतने लालायित क्यों रहते हैं? इसकी एक वजह यह है कि इधर इन्हें रोजगार के मामले में काफी आसानी होती है। अगर कोई बांग्लादेशी घुसपैठिया यहां आकर फेरी लगाते हुए महीने के 10,000 रुपए भी कमा ले तो 14,209 टका बनते हैं। हालांकि यही एक वजह नहीं है। घुसपैठिए भलीभांति जानते हैं कि भारत में फर्जी दस्तावेज बनवाना आसान है। इससे पकड़े जाने का जोखिम कम होता है। मुफ्त का राशन और अन्य सुविधाएं मिलेंगी सो अलग! अगर कभी पकड़े गए तो ऐसे कथित बुद्धिजीवियों की कमी नहीं है, जो 'क्रांति का झंडा' उठा लेंगे। अगर किसी तरह मतदाता सूची में नाम जुड़वा लिया तो मौज ही मौज! उस सूरत में कुछ राजनीतिक दल और नेतागण अपना वोटबैंक बना लेंगे। पांच-दस साल निकल गए, सभी प्रमुख दस्तावेज बन गए, कहीं झुग्गी या पक्का मकान बना लिया, कुनबा बड़ा हो गया, स्थानीय राजनीति को थोड़ा-बहुत प्रभावित करने की क्षमता आ गई तो कौन निकालेगा? कठोर दंड का भय न होने से ही घुसपैठियों के हौसले बुलंद हैं। क्या वजह है कि बांग्लादेशी, रोहिंग्या और तमाम घुसपैठिए चीन का रुख नहीं करते? चीन तो आर्थिक दृष्टि से बहुत संपन्न देश है। वहां रोजगार के मौके ज्यादा हैं। लोगों का जीवन स्तर बेहतर है। दरअसल चीन अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर बहुत सतर्क रहता है। वहां घुसपैठ संबंधी मामलों में कार्रवाई तेज और कठोर होती है। अगर किसी घुसपैठिए पर जासूसी या तस्करी का आरोप साबित हो जाए तो मृत्युदंड दे दिया जाता है। घुसपैठियों के मददगारों को जेल में डालकर बहुत भारी जुर्माना लगाया जाता है। याद रखें, घुसपैठियों के प्रति स्नेह और ममता दिखाने वाले यूरोपीय देश आज गंभीर समस्याओं से जूझ रहे हैं। क्या उनके अनुभव अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा पर विचार करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं?