कमजोर होती कलम

कमजोर होती कलम

कमजोर होती कलम

'दक्षिण भारत राष्ट्रमत' में प्रकाशित आलेख।

श्रीकांत पाराशर
दक्षिण भारत राष्ट्रमत

आज रविवार को पत्रकारिता दिवस है। अनेक मित्रों ने मुझे भी पत्रकारिता दिवस की शुभकामनाएं दी। मैं उन सबके प्रति हृदय से आभारी हूं क्योंकि चार दशक से इस पवित्र एवं महत्वपूर्ण पेशे में मैंने कुछ सिद्धांतों के साथ अपना दायित्व निर्वहन किया, उसका महत्व लोगों ने समझा और समझ रहे हैं। कर्नाटक और तमिलनाडु के लोग दक्षिण भारत राष्ट्रमत अखबार को व मुझे स्नेह, प्यार देते आ रहे हैं, उन सबके प्रति मैं हृदय से आभारी हूं। मेरे प्रति जो सबका विश्वास है और पेशे के प्रति मेरी निष्ठा व ईमानदारी की जो सबने हमेशा इज्ज़त की है वही मेरे लिए सबसे बड़ी पूंजी है और इस लंबी यात्रा की शक्ति है। अन्यथा सही मायने में तो समय के साथ साथ इस पेशे में अब निहायत स्वार्थी, अनैतिक तरीकों से पैसा कमाने वाले, ब्लेकमेलर, चापलूस, धोखेबाज और घाट घाट का पानी पीकर अपना उल्लू सीधा करने के लिए पत्रकार बने लोगों का बोलबाला बढता जा रहा है, मतलब संख्या बढती जा रही है।

आजकल इस पेशे में एक तो, बहुत से चापलूस घुस गए हैं जिन्होंने कभी पत्रकारिता में रुचि नहीं ली बल्कि भाटगीरी को ही पत्रकारिता मान लिया। ऐसे लोग अपने छिटपुट निजी स्वार्थ के लिए छुटभैये समाजसेवियों को बड़ा समाजसेवी बनाने का भरोसा देकर उनके मामूली से काम को तिल का ताड़ बनाकर चापलूसी की हदें पार करते हुए ऐसे पेश करते हैं जैसे ये अग्रणी समाजसेवी हैं। ऐसे लोग अखबारों में रिपोर्टर के रूप में जुड़े होते हैं।

बहुत से ऐसे लोगों को यह चापलूसी अच्छी लगती है जो कम खर्चे में, जल्दी से समाजसेवी बनने की लालसा रखते हैं क्योंकि वास्तविक सेवा कार्यों से ख्याति मिलने में थोड़ा वक्त लगता है। छोटी मोटी गिफ्ट देकर या कुछ कैश देकर गुणगान करवाकर वे निश्चिंत हो जाते हैं कि उनकी समाज में प्रतिष्ठा बन गई है जबकि आजकल लोग सब समझने लगे हैं कि कौन व्यक्ति वास्तव में काम कर रहा है और कौन केवल कागजी शेर है। इसलिए बिगड़ते हालात के लिए जितने जिम्मेदार ये चापलूस पत्रकार हैं, उतने ही झूठी शोहरत हासिल करने की लालसा रखने वाले लोग हैं।

कुछ लोग छपास के रोग से इतने पीड़ित होते हैं कि वे किसी न किसी रूप में मीडिया में बने रहने के लिए इन उचंती पत्रकारों की सेवाएं लेते हैं। इन्हें व्यक्तिगत रूप से कुछ दे देते हैं तो ये भी दाता की मर्जी मुताबिक कुछ भी लिखने को उतावले रहते हैं। ऐसे पत्रकारों ने भी पत्रकारिता का बहुत नुकसान किया है। हम बेंगलूरु का उदाहरण लेते हुए, सहज ही अतीत में दृष्टि डालें तो ऐसे कुछ लोगों को आप तुरंत पहचान जाएंगे जिन्होंने कुछ अखबारों का भट्ठा बिठाने और उन्हें बंद होने के लिए बाध्य करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये हमेशा अपनी भूमिका निभाने के लिए तैयार ही खड़े रहते हैं और ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे इनसे बड़ा पत्रकारिता का कोई हितैषी नहीं। नया व्यक्ति इनके जाल में फंस जाता है। ये लोग पत्रकारिता के सबसे बड़े दुश्मन हैं।

कुछ ऐसे लोग भी पत्रकारिता जगत में घुसे हुए हैं जिनका लक्ष्य प्रारंभ से ही कुछ और होता है। कोई केवल रसूख के लिए इस पेशे को अपनाता है तो कुछ लोग पैसा कमाने के लिए ब्लैकमेलिंग शुरू कर देते हैं। यह शार्ट टर्म गेन पर नजर टिका कर पत्रकारिता फील्ड में घुसने वाले लोग होते हैं। इनमें कुछ की तो जल्दी ही पोल खुल जाती है और कुछ को धीरे धीरे लोग नजरंदाज कर देते हैं। इनकी काबिलियत जाने बिना इनके कंधे का सहारा लेकर बड़ा आदमी बनने की लालसा रखने वाले लोग भी कुछ ही समय में सामाजिक पटल से ओझिल हो जाते हैं।

अफसोस की बात है कुछ पत्रकार तो अपना स्तर इतना गिरा लेते हैं कि जिस किसी संस्थान में कार्यरत होते हैं वहां किसी एक व्यक्ति को किसी शादी का निमंत्रण मिल जाए तो महज भोजन के लिए अपने सब साथियों और अपने परिवार के सदस्यों के साथ सुस्वादु भोजन का लुत्फ उठाने के लिए शादी में धावा बोल देते हैं। कुछ पत्रकार दवा की दुकानों से दवाइयां फ्री लेने की कोशिश करते हैं तो कुछ कपड़े की दुकान वालों से कपड़े फ्री ले लेते हैं। कुछ लोग उधार के नाम से कभी न लौटाने वाली राशि ले लेते हैं। अब सब जानते हैं कि इस प्रकार अपने ऊपर लादा गया बोझ किसी न किसी रूप में उतारना ही पड़ता है। और इस बोझ से दबी कलम अपने पेशे के साथ कितना न्याय कर सकती है? इसलिए साफ है कि हाल के वर्षों में पत्रकारिता की कलम कमजोर हुई है।

अलग अलग संस्थाओं या संस्थानों से जुड़े कुछ लोग तो इन तथाकथित पत्रकारों का भी फायदा उठाने में माहिर हैं। जो पत्रकार इनके अहम को तुष्ट नहीं करते या जिन पर ये अपनी धौंस नहीं जमा सकते, या जिनको ये अपनी तरफ मोड़ नहीं सकते उनका ये बिगाड़ तो कुछ नहीं सकते परंतु इस फिराक में रहते जरूर हैं कि किसी अखबार को कोई विज्ञापन मिल रहा हो तो यह भांजी मार देते हैं, मतलब काम बिगाड़ देते हैं। लेकिन यह सब करतूतें ज्यादा लंबी नहीं चलतीं। मैं तो बेंगलूरु में यह सब वर्षों से देख रहा हूं लेकिन अपनी एक निर्धारित कार्यशैली के कारण हमारे अखबार को प्रतिष्ठा मिली।

आज हम गर्व से कहते हैं कि हमारे अखबार में कोई अश्लील फोटो , विज्ञापन या मैटर प्रकाशित नहीं होता। हम युवा पीढी को दिग्भ्रमित करने वाले, फोनो फ्रेंड, मसाज पार्लर, जवानी वाली कैप्सूल और तेल बेचने वाले विज्ञापन कभी नहीं छापते। हम किसी की सराहना भी तभी करते हैं जब उस व्यक्ति ने कोई सराहना योग्य काम किया हो। छोटे मोटे सेवा का काम करने वाले की सेवा का भी संतुलित उल्लेख करते हैं। उसको गुब्बारा बनाकर कल्पनाओं के आसमान में नहीं उड़ाते, क्योंकि यह पत्रकारिता नहीं, भाटगीरी है और कोई स्वाभिमानी पत्रकार घटिया चापलूसी कतई नहीं करेगा। हमारा यह मानना है कि लोकतंत्र के चौथे खंभे पत्रकारिता को मजबूत करने की कोशिश हो अन्यथा दीमकें तो लगने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं।

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