राम के नाम से दीदी खफा क्यों?

राम के नाम से दीदी खफा क्यों?

राम के नाम से दीदी खफा क्यों?

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी। फोटो स्रोत: फेसबुक पेज।

भारत श्रीराम, कृष्ण, छत्रपति शिवाजी महाराज, सुभाष चंद्र बोस जैसे अनेक महावीरों की भूमि है। इनके नाम और जयघोष से किसी को नाराज नहीं होना चाहिए। यह तो सम्मान की बात है। इसे अकारण ही प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना चाहिए। हमारी संस्कृति में ‘जय श्रीराम’ का उत्तर ‘जय श्रीराम’ से ही दिया जाता है। श्रीराम किसी समुदाय, पार्टी या राज्य विशेष के नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व के हैं।

अगर कोई उनके जयघोष को अपने अपमान के तौर पर लेता है तो यह उचित नहीं है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी शनिवार को जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर कोलकाता स्थित विक्टोरिया मेमोरियल में आयोजित कार्यक्रम में भाषण देने पहुंचीं तो उपस्थित भीड़ में से कुछ ने ‘जय श्रीराम’ के नारे लगा दिए। इससे दीदी खफा हो गईं। उन्हें लगा कि ‘जय श्रीराम’ उनका अपमान करने के लिए बोला जा रहा है। लिहाजा उन्होंने भाषण देने से इन्कार कर दिया और 32 सेकेंड में अपनी नाराजगी भर व्यक्त की।

इसमें कोई संदेह नहीं कि दीदी एक अनुभवी नेत्री हैं। उन्होंने राजनीतिक जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। उनसे इतनी अपेक्षा तो की जा सकती है कि अगर कोई ‘जय श्रीराम’ कहे तो उस पर किन शब्दों में प्रतिक्रिया दी जानी चाहिए। पश्चिम बंगाल से पहले भी ऐसे वीडियो सामने आ चुके हैं जब लोगों ने ममता बनर्जी को देखकर जय श्रीराम के नारे लगाए थे। ये आम लोग हैं, कोई भाड़े पर लाई गई भीड़ नहीं। दीदी जानती होंगी कि अगर वे इस नारे की प्रतिक्रिया में क्रोध प्रकट करेंगी तो खुद ही लोगों को दोबारा ऐसा करने का मौका देंगी।

इसका सबसे सही तरीका यह है कि जब कोई ‘जय श्रीराम’ बोले तो आप भी विनम्रतापूर्वक यही बोलें, बात यहीं समाप्त हो जाएगी। फिर कोई बार-बार ऐसा नहीं कहेगा। परंतु दीदी की प्रतिक्रिया लोगों को बार-बार ऐसा करने के लिए उकसा रही है। इससे यह संदेश जाता है कि उन्हें ‘जय श्रीराम’ सुनने से चिढ़ है। इससे उनके दीर्घ राजनीतिक अनुभव पर सवाल उठते हैं, साथ ही आलोचकों को यह कहने का अवसर मिलता है कि वे अपने वोटबैंक को साधने के लिए इस नारे पर भड़क जाती हैं। बंगाल में विधानसभा चुनाव ज्यादा दूर नहीं हैं। ऐसे में ममता का यह रवैया कई लोगों को उनकी पार्टी से दूर कर सकता है।

पिछले करीब तीन दशकों में राजनेताओं और मीडिया के एक धड़े ने बड़ी चालाकी से यह अवधारणा बना दी है कि ‘जय श्रीराम’ कहना सांप्रदायिक है। हालांकि उनके लिए दूसरे कुछ नारे ‘सेकुलरिज्म’ हैं! वे सेकुलरिज्म की ऐसी परिभाषाएं तैयार करते रहते हैं जो उन्हें सुविधाजनक लगती हैं, जबकि इसका अर्थ सभी धर्मों के प्रति समान आदर भाव होना चाहिए।

अगर उक्त कार्यक्रम में ममता ‘जय श्रीराम’ के उत्तर में यही बोल देतीं तो मामला तूल नहीं पकड़ता। अब यह समाचार सोशल मीडिया पर प्रसारित हो रहा है और देशभर में लोग सवाल कर रहे हैं। इस बात की भी कोई गारंटी नहीं कि विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान फिर ऐसे नारे नहीं सुनाई देंगे। उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी इसे भुनाने की पूरी कोशिश करेंगे। अगर ममता गौर करेंगी तो बंगाल की अनेक महान विभूतियों के नाम का राम के साथ गहरा संबंध है। अगर राम हैं तो रामकृष्ण परमहंस हैं। 23 जनवरी को भारत मां के जिस सपूत सुभाष चंद्र बोस की जयंती थी, उनके पिता का नाम क्या था? जानकीनाथ यानी श्रीराम। ममता बनर्जी को इन सब पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

इसी दिन एक और घटना चर्चा में रही। ब्राजील के राष्ट्रपति जेयर बोलसोनारो ने कोरोना के टीके की 20 लाख खुराकें देने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आभार जताते हुए सोशल मीडिया पर एक तस्वीर पोस्ट की, जिसमें हनुमानजी को भारत से ‘संजीवनी बूटी’ लेकर ब्राजील जाते दिखाया गया है। अगर बोलसोनारो भारत में किसी राज्य के मुख्यमंत्री होते और कोरोना के टीके के लिए मोदी का आभार जताते हुए यह तस्वीर पोस्ट कर देते तो फौरन सांप्रदायिक घोषित कर दिए जाते।

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