केबीसी में धनवर्षा के बाद मुसीबत के भंवर में कैसे फंसे सुशील कुमार?
केबीसी में धनवर्षा के बाद मुसीबत के भंवर में कैसे फंसे सुशील कुमार?
.. राजीव शर्मा ..
पटना/दक्षिण भारत। बचपन से ही अभावों और आर्थिक दिक्कतों का सामना कर रहे व्यक्ति को अगर अचानक करोड़ों रुपए मिल जाएं तो क्या होगा? शायद आपका जवाब यह हो कि अभाव और आर्थिक दिक्कतें दूर होने से उस व्यक्ति का जीवन सुखमय हो जाएगा।प्रसिद्ध टीवी शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ (केबीसी) में पांच करोड़ रुपए जीत चुके बिहार के सुशील कुमार का अनुभव इससे अलग रहा। उनकी मानें तो केबीसी-5 विजेता बनने के बाद वे मुसीबतों के भंवर में फंस गए और बमुश्किल निकल पाए।
सुशील कहते हैं, ‘2015-16 मेरे जीवन का सबसे चुनौतीपूर्ण समय था। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें।’ वे आपबीती बताते हैं, ‘लोकल सेलेब्रिटी होने के कारण महीने में 10 से 15 दिन बिहार में कहीं न कहीं कार्यक्रम लगा ही रहता था, इसलिए पढ़ाई-लिखाई धीरे-धीरे दूर जाती रही। उसके साथ, मैं मीडिया को लेकर बहुत ज्यादा सीरियस रहा करता था और मीडिया भी कुछ-कुछ दिन पर पूछ लेता था कि आप क्या कर रहे हैं। इसको लेकर मैं बिना अनुभव के कभी ये बिजनेस, कभी वो बिजनेस करता था ताकि मीडिया को बता सकूं कि मैं बेकार नहीं हूं।’
सुशील कुमार के मुताबिक, इन सबका नतीजा यह रहा कि वह बिजनेस कुछ दिन बाद डूब जाता था। केबीसी में बड़ी रकम जीतने के बाद सुशील ‘दानवीर’ बन गए और उन्हें गुप्तदान का चस्का लग गया। हर माह ऐसे कार्यों में करीब 50 हजार रुपए तक खर्च हो जाते थे। पैसा पास में देख कुछ चालाक किस्म के लोग भी सुशील के साथ हो गए और कई मौकों पर खूब ठगा। उन्हें इस बात का पता तब चलता था जब उस व्यक्ति को पैसा दान कर देते थे।
खूब हुआ पत्नी से झगड़ा
ऐसे हालात में पत्नी के साथ संबंध खराब होते चले गए। सुशील बताते हैं, वो अक्सर कहा करती थीं कि आपको सही-गलत लोगों की पहचान नहीं है और भविष्य की कोई चिंता नहीं है। यह सब सुनकर लगता था कि वह मुझे समझ नहीं पा रही हैं और इस बात को लेकर खूब झगड़ा हो जाया करता था।
इसी दौरान सुशील ने एक और काम शुरू कर दिया। उन्होंने दिल्ली में कुछ कारें लीं और अपने दोस्त के जरिए वहां चलवाने लगे। वे काम के सिलसिले में हर महीने दिल्ली जाते। इसी सिलसिले में उनका परिचय जामिया मिलिया में मीडिया की पढ़ाई कर रहे लड़कों से हो गया। फिर आईआईएमसी में पढ़ाई कर रहे लड़के, फिर उनके सीनियर, फिर जेएनयू में रिसर्च कर रहे लड़के, कुछ थिएटर आर्टिस्ट आदि से परिचय हुआ।
अरे! मैं तो कुएं का मेढ़क हूं
सुशील कहते हैं, ‘जब ये लोग किसी विषय पर बात करते थे तो लगता था, अरे! मैं तो कुएं का मेढ़क हूं, मैं तो बहुत चीजों के बारे में कुछ नहीं जानता। अब इन सब चीजों के साथ एक लत भी जुड़ गई, शराब और सिगरेट। जब इन लोगों के साथ बैठना होता तो शराब और सिगरेट के साथ।’
एक समय ऐसा आया कि अगर सात दिन रुक गए तो सातों दिन इसी तरह के सात ग्रुप के साथ अलग-अलग बैठकें करते। उन्हें सुनना बहुत अच्छा लगता था, क्योंकि ये लोग जो भी बातें करते, वे सुशील को नई-नई लगती थीं। हालांकि इन लोगों की संगति का असर यह हुआ कि वे मीडिया को लेकर पहले जो बहुत गंभीर रहा करते थे, वह गंभीरता धीरे-धीरे कम हो गई।
सिनेमा से जुड़ी एक घटना से घर में कितना बवाल मच गया, इस बारे में सुशील कहते हैं, जब भी घर पर रहते तो रोज एक फिल्म देखते। हमारे यहां फिल्म डाउनलोड की दुकान है जो पांच से दस रुपए में हॉलीवुड की कोई भी फिल्म हिंदी में डब या कोई भी हिंदी फिल्म उपलब्ध करा देती है।
एक ही फिल्म बार-बार देखने से पागल हो जाएंगे!
उस रात ‘प्यासा’ फिल्म देख रहा था और फिल्म का क्लाइमेक्स चल रहा था जिसमें माला सिन्हा से गुरुदत्त साहब कर रहे हैं कि ‘मैं वो विजय नहीं हूं, वो विजय मर चुका’। उसी वक्त पत्नी कमरे में आईं और चिल्लाने लगीं कि एक ही फिल्म बार-बार देखने से पागल हो जाएंगे और यही देखना है तो मेरे कमरे में मत रहिए, जाइए बाहर।
सुशील कहते हैं, इस बात से मुझे दुख इसलिए हुआ क्योंकि लगभग एक माह से बातचीत बंद थी और बोला भी ऐसे कि आगे भी बात करने की हिम्मत न रही। मैंने लैपटॉप बंद किया और मोहल्ले में चुपचाप टहलने लगा।
एक बयान से मचा हंगामा
अभी टहल ही रहे थे कि एक अंग्रेजी अखबार के पत्रकार का फोन आया। कुछ देर तक ठीक-ठाक बात की लेकिन इसी दौरान उन्होंने कुछ ऐसा पूछ लिया कि उससे चिढ़ हो गई और सुशील ने कह दिया, ‘मेरे सारे पैसे खत्म हो गए हैं। मैंने दो गाय पाली हैं और उन्हीं का दूध बेचकर गुजारा करते हैं।’
पत्रकार ने उनके इस बयान के आधार पर समाचार प्रकाशित कर दिया, जिसके बाद सोशल मीडिया पर यह चर्चा शुरू हो गई कि केबीसी विजेता सुशील कुमार कंगाल हो गए हैं। देखते ही देखते ऐसी खबरों की बाढ़ आ गई।
बंद हो गए बुलावे
हालांकि, सुशील को इसका एक फायदा हुआ। जो चालाक किस्म के लोग पैसों की वजह से साथ रहते थे, वे अब कन्नी काटने लगे। कार्यक्रमों से बुलावे भी बंद हो गए और अब सुशील को यह सोचने का समय मिला कि आगे क्या करना चाहिए।
चलो, चलें मुंबई …
सुशील बताते हैं, उस समय खूब सिनेमा देखते थे। लगभग सभी नेशनल अवॉर्ड विजेता फिल्में, ऑस्कर विजेता फिल्में, ऋत्विक घटक और सत्यजीत रॉय की फिल्में देखकर मन में फिल्म निर्देशक बनने का सपना कुलबुलाने लगा था। इसी बीच एक दिन पत्नी से खूब झगड़ा हो गया और वो अपने मायके चली गईं, बात तलाक लेने तक पहुंच गई।
सुशील कहते हैं, तब मुझे यह अहसास हुआ कि अगर रिश्ता बचाना है तो मुझे बाहर जाना होगा और फिल्म निर्देशक बनने का सपना लेकर चुपचाप बिल्कुल नए परिचय के साथ मैं आ गया। अपने एक परिचित प्रोड्यूसर मित्र से बात करके जब अपनी बात कही तो उन्होंने फिल्म संबंधी कुछ टेक्निकल बातें पूछीं जिनके बारे में, मैं नहीं बता पाया, तो उन्होंने कहा कि कुछ दिन टीवी सीरियल में काम कर लीजिए। बाद में किसी फिल्म डायरेक्टर के यहां रखवा देंगे।
रास नहीं आई मायानगरी
मायानगरी का अनुभव कैसा रहा? इस बारे में सुशील ने बताया, ‘एक बड़े प्रोडक्शन हाउस में आकर काम करने लगा। वहां कहानी, स्क्रीन प्ले, डायलॉग कॉपी, प्रॉप कॉस्टयूम, कंटीन्यूटी और न जाने क्या-क्या करने, देखने, समझने का मौका मिला। उसके बाद मेरा मन वहां से बेचैन होने लगा। वहां पर बस तीन ही जगह आंगन, किचन, बेडरूम ज्यादातर शूट होता था और चाहकर भी मन नहीं लगा पाता था।’
‘मैं तो मुंबई फिल्म निर्देशक बनने का सपना लेकर आया था और एक दिन वो भी छोड़कर अपने एक परिचित गीतकार मित्र के साथ उसके रूम में रहने लगा। दिनभर लैपटॉप पर फिल्म देखता और दिल्ली पुस्तक मेले से जो सूटकेस भरकर किताब लाया था, उन्हें पढ़ता रहता।’
‘मैं एक भगोड़ा हूं’
सुशील ने बताया, ‘लगभग छह महीने लगातार यही करता रहा और दिनभर में एक डिब्बा सिगरेट खत्म कर देता, पूरा कमरा हमेशा धुएं से भरा रहता था। दिनभर अकेले ही रहने और पढ़ने-लिखने से मुझे खुद के अंदर निष्पक्षता से झांकने का मौका मिला और यह अहसास हुआ कि मैं मुंबई में कोई डायरेक्टर बनने नहीं आया। मैं एक भगोड़ा हूं जो सच्चाई से भाग रहा है। असल खुशी अपने मन का काम करने में है। घमंड को कभी शांत नहीं किया जा सकता। बड़ा होने से हजार गुना ठीक है अच्छा इंसान होना। खुशियां छोटी-छोटी चीजों में छिपी होती हैं। जितना हो सके देश, समाज का भला करना जिसकी शुरुआत अपने घर/गांव से की जानी चाहिए।’
उस दौर को याद करते हुए सुशील कहते हैं, ‘हालांकि इसी दौरान तीन कहानियां लिखीं जिनमें से एक कहानी एक प्रोडक्शन हाउस को पसंद भी आई और उसके लिए मुझे लगभग 20 हजार रुपए भी मिले। हालांकि पैसा देते वक्त मुझसे कहा गया कि इस फिल्म का आइडिया बहुत अच्छा है, पर कहानी पर काफी काम करना पड़ेगा, क्लाइमेक्स भी ठीक नहीं है।’
पकड़ी घर की राह
इसके बाद मैं मुंबई से घर आ गया, टीचर की तैयारी की और पास भी हो गया। साथ ही अब पर्यावरण से संबंधित बहुत सारे कार्य करता हूं जिसके कारण मुझे एक अजीब तरह की शांति का अहसास होता है। साथ ही अंतिम बार शराब मार्च 2016 में पी थी। उसके बाद पिछले साल सिगरेट भी खुद-ब-खुद छुट गई। अब तो जीवन में हमेशा एक नया उत्साह महसूस होता है और बस ईश्वर से प्रार्थना है कि जीवनभर मुझे ऐसे ही पर्यावरण की सेवा करने का मौका मिलता रहे। इसी में मुझे जीवन का सच्चा आनंद मिलता है।
इतना ही कमाना है, जितनी जरूरतें
सुशील बताते हैं, बस यही सोचता हूं कि जीवन की जरूरतें जितनी कम हो सकें, रखनी चाहिए। बस इतना ही कमाना है कि जो जरूरतें हैं, वे पूरी हो जाएं और बाकी बचे समय में पर्यावरण के लिए ऐसे ही छोटे स्तर पर कुछ करते रहना है।