डिजिटल उपवास
किताबें पढ़ने से बच्चे में याद रखने की प्रवृत्ति का अधिक विकास होता है
यह जरूरी नहीं कि इंटरनेट जो जवाब ढूंढ़कर लाए, वह सही हो
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'परीक्षा पे चर्चा' कार्यक्रम में जिन बिंदुओं का उल्लेख किया, वे आज अत्यंत प्रासंगिक हैं। खास तौर से सप्ताह में एक दिन 'डिजिटल उपवास' तो ऐसा सुझाव है, जिस पर अमल करने की बहुत जरूरत है। निस्संदेह गैजेट्स के इस्तेमाल से कई काम बहुत आसान हो गए हैं। इनका सही इस्तेमाल पढ़ाई में बहुत मददगार साबित हो रहा है, लेकिन यह भी देखने में आता है कि प्राय: विद्यार्थी इन पर काफी निर्भर हो जाते हैं।
ऑडियो, वीडियो प्रारूप में अध्ययन सामग्री उपलब्ध होने से ढूंढ़ने और सीखने में आसानी होती है, लेकिन इनसे कहीं न कहीं किताबों से दूरी भी बढ़ती है। किताबें पढ़ने से बच्चे में याद रखने की प्रवृत्ति का अधिक विकास होता है। साथ ही तर्क क्षमता में बढ़ोतरी होती है। डिजिटल प्रारूप में ऐसा नहीं है। अब किसी भी सवाल का जवाब चाहिए तो इंटरनेट हाजिर है, वह ढूंढ़कर ले आएगा। यह जरूरी नहीं कि इंटरनेट जो जवाब ढूंढ़कर लाए, वह सही हो।उदाहरण के लिए, नब्बे के दशक तक स्कूली विद्यार्थियों में शब्दकोश रखने का काफी चलन था। प्रतिभाशाली बच्चों को पुरस्कार में अंग्रेज़ी से हिंदी के शब्दकोश दिए जाते थे। फादर कामिल बुल्के सरीखे विद्वानों ने शब्दकोश लेखन को बुलंदी तक पहुंचाया था।
आज स्कूली विद्यार्थियों में शब्दकोश रखने का चलन कम हो गया है। अगर किसी को शब्द का अर्थ देखना है तो इंटरनेट उपलब्ध है। टाइप करो और उत्तर पाओ। भले ही उसमें ग़लतियों की भरमार हो, लेकिन विद्यार्थी संतुष्ट है कि उसका काम बहुत आसानी से हो गया। उधर, वेबसाइट निर्माता भी खुश है, क्योंकि व्यूज़ आ रहे हैं।
गैजेट्स को सहायक माध्यम बनाना तो ठीक है। उन पर अतिनिर्भरता और आंखें मूंदकर विश्वास करने के नतीजे नुकसानदेह हो सकते हैं। मोबाइल फोन का उपयोग करते समय इंटरनेट सर्च से जानकारी के इतने दरवाजे खुल जाते हैं कि मानव मस्तिष्क उन सबको ग्रहण करने में स्वयं को असमर्थ पाता है। आज जानकारी का प्रवाह इतना ज्यादा है कि कोई विद्यार्थी चाहकर भी सबकुछ याद नहीं रख सकता। इस प्रक्रिया में काफी समय खर्च होता है।
कई बार तो ऐसा होता है कि आधा घंटा मोबाइल चलाने का इरादा करते हैं, लेकिन बातों ही बातों में दो घंटे लग जाते हैं। इंटरनेट का मायाजाल इतना मुग्ध कर देता है कि उसकी गिरफ्त में आने के बाद बचकर निकलना आसान नहीं होता। इससे एकाग्रता भंग होती है। नेत्रज्योति पर असर पड़ता है।
विभिन्न परीक्षाओं में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों के साक्षात्कार पढ़ेंगे तो ज़्यादातर में एक बात समान रूप से मिलेगी कि जब उन्होंने परीक्षा में सफलता के लिए लक्ष्य बनाया तो मोबाइल फोन से दूरी बना ली या उसके उपयोग के लिए थोड़ा-सा समय निर्धारित कर लिया। उसके बाद पूरा ध्यान पढ़ाई पर दिया। इसके नतीजे अच्छे आए। आज कई बच्चों को मोबाइल फोन की 'लत' लग चुकी है। इस बात को लेकर घरों में झगड़े होते हैं। परीक्षा परिणाम तक बिगड़ चुके हैं।
इससे माता-पिता को दु:ख होता है, लेकिन विडंबना यह है कि परिवारों में बड़े भी इसकी चपेट में आते दिख रहे हैं। इंटरनेट का आभासी संसार प्रभावी होता जा रहा है। जब कोई जरूरत हमारी आदतों के कारण 'लत' बन जाए या इसकी आशंका हो तो 'उपवास' ही उससे छुटकारे का उपाय है।
वर्तमान में 'डिजिटल उपवास' की बड़ी ज़रूरत है, बशर्ते इससे कोई हानि न हो और कामकाज में व्यवधान न आए। पश्चिमी देशों में बहुत लोग इसे अपना चुके हैं, जिनके नतीजे उत्साहजनक आए हैं। भारतीय विद्यार्थियों को भी इस पर विचार करना चाहिए।