नकली छवि

पाकिस्तान के लिए यह साल चुनावी साल है

नकली छवि

अगर वहां दोबारा उस स्तर का हंगामा हुआ तो चुनाव पर संकट के बादल मंडरा सकते हैं

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ का पीटीआई कार्यकर्ताओं के संबंध में दिया गया यह बयान चेतावनी के बजाय हास्यास्पद ज्यादा लगता है कि 'यह कोई मजाक नहीं था कि आतंकवादियों ने कराची में वायुसेना के प्रतिष्ठानों पर हमला किया और फिर खान के समर्थकों ने मियांवाली में विमान में आग लगा दी जिसका उपयोग ... के खिलाफ किया गया था।' 

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शरीफ अगर सच में 'शरीफ' होते तो यह भी स्वीकार करते कि आज जिन लोगों को वे 'आतंकवादी' कह रहे हैं, उन्हें पाकिस्तानी फौज ने ही पाला-पोसा था। पीटीआई तो एक राजनीतिक दल है, पाकिस्तान में खूंखार आतंकवादी संगठनों का पालन-पोषण वहां की फौज करती है। 

शहबाज के बड़े भाई नवाज शरीफ के कार्यकाल में भी फौज ने आतंकवादियों की खूब भर्ती की थी, जिन्हें बाद में एलओसी की ओर भेजा गया था। जो देश अपने पड़ोस में आतंकवादियों को भेजकर उनकी तबाही का सपना देखता है, वहां राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं की गतिविधियां आतंकवादियों जैसी क्यों नहीं होंगी! 

जिन्ना ने जो सुनहरे सपने दिखाकर भारत का विभाजन कराया और पाकिस्तान बनाया, वह मुल्क आज तक यही तय नहीं कर पाया है कि उसे किस दिशा में जाना है। वहां जिस पार्टी की सरकार आती है, वह ऐसे सपने बेचने का काम करती है, जो न कभी पूरे हुए और न पूरे होने की दूर-दूर तक कोई संभावना है। अगर भारत से अलग होकर पाकिस्तान शिक्षा, अर्थव्यवस्था, उद्योग, विज्ञान, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल करता तो दुनिया में उसकी प्रतिष्ठा होती। 

आज पाकिस्तान का पासपोर्ट सबसे अनुपयोगी पासपोर्ट की गिनती में आता है। सरकार चाहे शरीफ खानदान की हो या भुट्टो खानदान की या फिर इमरान खान की, पाकिस्तान और उसके पासपोर्ट की कद्र में इजाफा करना इनका मकसद नहीं रहा, क्योंकि यह इनके हाथ में नहीं है। ये किसी तरह फौज के साथ मिलकर अपने स्वार्थों को साधने की कोशिश करते हैं।

हाल में इमरान समर्थकों ने पाकिस्तान में जिस तरह हुड़दंग मचाया, वह अप्रत्याशित था। यूं तो पाक में विरोध प्रदर्शन, मारपीट, बम धमाकों और आगजनी का लंबा इतिहास रहा है, लेकिन पहली बार किसी नेता के नाम पर उसके समर्थक इस तरह उग्र हुए कि फौज के हाथ-पांव फूल गए। यह फौज के लिए भी अपनी 'प्रतिष्ठा' बचाने का समय है, क्योंकि लोगों की नज़रों में इमरान खान सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर से भी बड़े होते जा रहे हैं। उनके समर्थकों ने जिस तरह लाहौर कोर कमांडर हाउस को फूंका, उससे पता चलता है कि अब पाकिस्तानी फौज की नकली छवि ध्वस्त होती जा रही है। 

लोगों को कुछ तो बोध होने लगा है कि उनकी गरीबी, भुखमरी और बदहाली के जिम्मेदार वे फौजी अफसर हैं, जो मुल्क का खजाना लूटते हैं और आलीशान महलों में रहते हैं। प्रदर्शनकारियों ने फैसलाबाद में आईएसआई भवन को भी नहीं छोड़ा। इस कुख्यात खुफिया एजेंसी के हाथ पाकिस्तानियों के खून से रंगे हुए हैं। इसने भारत के साथ संबंध कभी बेहतर नहीं होने दिए और पाक में जो प्रधानमंत्री उसकी नीति से इधर-उधर हुआ, उसका तख्ता पलट दिया। 

क्या पाकिस्तानियों का यह आक्रोश किसी क्रांति का रूप लेगा, जिससे सुनहरे भविष्य की उम्मीद की जा सकती है? तो इसका जवाब 'नहीं' में है। यह आक्रोश किसी सकारात्मक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए नहीं, बल्कि इस बात को लेकर है कि इमरान खान को जेल क्यों भेजा गया। इस तोड़फोड़ के दौरान लोगों का फौज पर गुस्सा जरूर उतरा, लेकिन भारत के प्रति उन लोगों की सोच वही पुरानी है। भविष्य में इमरान इसका इस्तेमाल अपनी सियासत चमकाने के लिए कर सकते हैं। 

यूं तो पाकिस्तान के लिए यह साल चुनावी साल है। अगर वहां दोबारा उस स्तर का हंगामा हुआ तो चुनाव पर संकट के बादल मंडरा सकते हैं। यह भी मुमकिन है कि आसिम मुनीर मार्शल लॉ की घोषणा कर दें। पाकिस्तानी मीडिया में यह दलील दी जा रही है कि आर्थिक बदहाली और अशांति से निजात पाने का एक ही तरीका है कि फौरन चुनाव करवा दिए जाएं। 

हालांकि इस मुल्क में असंतोष और आतंकवाद की जो लहर आई है, उससे संकेत मिलते हैं कि चुनाव के दौरान और उसके बाद भारी हिंसा हो सकती है। चूंकि खजाना पहले ही खाली है। विदेशी कर्ज बढ़ता जा रहा है। इस स्थिति में नई सरकार चाहकर भी कुछ नहीं कर पाएगी।

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