इनकी पीड़ा कौन समझे?

जो नियोक्ता श्रमिकों की मांग करते हैं, उनके पास बहुत बड़ी तादाद में आवेदन आते हैं, क्योंकि ...

इनकी पीड़ा कौन समझे?

कई लोग बताते हैं कि यह भ्रम होता है कि उधर बहुत पैसा होगा, शानदार ज़िंदगी होगी

कुवैत के मंगफ क्षेत्र में स्थित एक बहुमंजिला इमारत में आग लगने से कई लोगों की मौत होने की घटना अत्यंत हृदय विदारक है। इस हादसे के बाद खाड़ी देशों समेत संपूर्ण पश्चिमी एशिया में काम करने वाले भारतीय श्रमिकों की पीड़ा पर बात हो रही है। बहुत कम लोगों को उन हालात के बारे में जानकारी होती है, जिनसे जूझते हुए ये श्रमिक अपनी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा गुजार देते हैं। ये अपने परिवारों से कई सौ किमी दूर रहकर अनगिनत दिक्कतें इसलिए झेलते रहते हैं, ताकि परिजन सुखी रहें, उन्हें किसी तरह के अभाव का सामना न करना पड़े। कुवैत की जिस इमारत में आग लगी, उसमें भारत, पाकिस्तान, फिलीपींस, मिस्र, नेपाल समेत कई देशों के लोग नाम मात्र की 'सुविधाओं' के साथ रह रहे थे। वहां ऐसी कई इमारतें होंगी, जिनमें या तो मूलभूत सुविधाएं नहीं होंगी या फिर खस्ता हालत में होंगी। एक-एक कमरे में दर्जनभर लोगों को रहना पड़ता है। सुबह शौच और स्नान आदि के लिए लाइन लगानी पड़ती है। कभी बीमार हो जाएं तो कोई पूछने वाला नहीं होता, क्योंकि किसी के पास इतना समय नहीं होता, कामकाज के बाद हर कोई बहुत थका हुआ होता है। उधर, स्वदेश में परिवारों और रिश्तेदारों को लगता है कि 'खाड़ी देशों में तो दौलत बरस रही है, उन्हें किस बात की तकलीफ होगी!' बेशक यहां कई देशों में बहुत कमाई है, लेकिन यह कुछ लोगों के लिए ही है। विदेशों से आने वाले ज्यादातर श्रमिक उतना ही कमा पाते हैं, जिससे उनके घर का गुजारा ठीक-ठाक चलता रहे। इसके बदले उन्हें जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, अगर वैसी परिस्थितियां स्वदेश में हों तो श्रमिक यूनियन बड़ा आंदोलन कर दें।

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इन देशों में जाने के लिए लोग बड़ी राशि खर्च करते हैं। जो नियोक्ता श्रमिकों की मांग करते हैं, उनके पास बहुत बड़ी तादाद में आवेदन आते हैं, क्योंकि दुनिया के कई देशों में आबादी बहुत ज्यादा है और रोजगार के मौके कम हैं। नियोक्ता जानता है कि आने वाले श्रमिकों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। बहुत लोगों के सिर पर तो भारी कर्ज होता है, इसलिए नियोक्ता मजबूरी का फायदा उठाते हैं, मनमानी शर्तें थोपते हैं। अब इंटरनेट और सोशल मीडिया आने से कुछ बातें बाहर आ जाती हैं। पहले तो लोग एक-दूसरे से कहकर ही मन हल्का कर लेते थे। राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र से इन देशों में नौकरी कर चुके कई लोग बताते हैं कि यह भ्रम होता है कि उधर बहुत पैसा होगा, शानदार ज़िंदगी होगी। वहां जाने पर आटे-दाल का भाव मालूम हो जाता है। कई लोगों के साथ ऐसा हुआ कि जिस कंपनी ने काम के लिए बुलाया, उसने आते ही एक दस्तावेज पर हस्ताक्षर करवा लिए। उसमें क्या लिखा था, यह ज्यादातर लोग नहीं समझ पाते, क्योंकि दस्तावेज अरबी भाषा में होता है। कई लोगों के पासपोर्ट रख लिए जाते हैं। ऐसा भी होता है कि पहले काम बताया कुछ और, बाद में करवाने लगे कुछ और! प्राय: कंपनियां एक-दो महीने का वेतन रख लेती हैं। काम की शर्तें काफी कड़ी होती हैं। अगर कहीं किसी श्रमिक के साथ ज्यादती हो जाए तो वह अपनी आवाज उठाने में असमर्थ होता है, क्योंकि किसी भी तरह के संगठन का निर्माण करना, विरोध-प्रदर्शन करना सख्त मना होता है। ऐसा करने वाले कई लोग जेल भेजे जा चुके हैं। बाद में उन्हें स्वदेश रवाना कर दिया जाता है। वहां भविष्य में काम करने पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी जाती है। कंपनी के पास रखा वेतन डूबता है सो अलग! वर्षों घर-परिवार से दूर रहकर इन्सान खुद को काम करने की एक मशीन भर समझने लगता है। उसकी तकलीफों पर भारत में कोई पार्टी बात नहीं करती। शायद इसलिए, क्योंकि इसमें चुनावी फायदा नहीं है। जो श्रमिक अपनी पूरी जवानी विदेशों में गगनचुंबी इमारतें, चमचमाती सड़कें बनाने, उन्हें संवारने में खपा देता है, अगर उसे वही अवसर स्वदेश में मिल जाए तो देश की जवानी देश के काम आ सकती है।

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