समय रहते समझें
'धर्म का पालन या प्रचार करना' और 'किसी का धर्मांतरण कराना' एक नहीं है
अपने धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीय गौरव से दूर होने का परिणाम घातक ही होता है
देश में लोगों को बहला-फुसलाकर धर्मांतरण कराए जाने की घटनाओं पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की टिप्पणी विचारणीय है। न्यायालय ने एक ऐसी समस्या का उल्लेख किया है, जिसके बारे में विभिन्न संगठन और राजनीतिक दल सबकुछ जानते हुए भी कुछ नहीं कहते। न्यायालय ने सत्य कहा कि 'अगर धार्मिक समागमों में धर्मांतरण को तत्काल नहीं रोका गया तो देश की बहुसंख्यक आबादी एक दिन अल्पसंख्यक हो जाएगी।' हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 'धर्म का पालन या प्रचार करना' और 'किसी का धर्मांतरण कराना' एक नहीं है। कोई व्यक्ति स्वेच्छा से जिस धर्म का पालन करना चाहता है, कर सकता है। इस पर कहीं कोई कानूनी रोक-टोक नहीं है। सबको अधिकार दिए गए हैं। वहीं, कोई व्यक्ति अपने अध्ययन, मनन और चिंतन के बाद किसी अन्य धर्म को स्वीकार करना चाहता है तो वह इसके लिए स्वतंत्र है। कानून इसकी भी पूरी इजाजत देता है, लेकिन कोई व्यक्ति किसी को लोभ-लालच के जाल में फंसाकर, फुसलाकर, धोखा देकर किसी का धर्मांतरण कराए, इसे एक तरह से 'धंधा' ही बना ले और अन्य समुदायों की आस्था पर चोट करे, उनके आराध्यों के बारे में आपत्तिजनक बातें करे तो क्या इस बात की इजाजत होनी चाहिए? हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि धर्मांतरण भविष्य में कई गंभीर समस्याओं को जन्म देता है। आज के नौजवानों को यह बताया जाए तो शायद उन्हें विश्वास नहीं होगा कि सौ साल पहले तक अफगानिस्तान में अच्छी-खासी तादाद में हिंदू, सिक्ख, जैन रहते थे, वहां कारोबार करते थे। उससे पहले, राजकाज में उनकी बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका हुआ करती थी। वे बहुत समृद्ध थे। अब वहां कितने हिंदू, सिक्ख और जैन हैं?
आज पाकिस्तान के खैबर-पख्तूनख्वा, सिंध, बलोचिस्तान और पंजाब में खुदाई होती है तो कहीं शिवजी, कहीं गणेशजी, हनुमानजी, दुर्गाजी, तो कहीं महात्मा बुद्ध की प्रतिमाएं निकलती हैं। ऐसे कई मंदिर निकले हैं, जिनके बारे में इतिहासकारों का कहना है कि किसी ज़माने में वहां धर्मप्रेमी हिंदू राजाओं का शासन था। बांग्लादेश में भी ऐसे कई मंदिर मिले हैं, जिनमें विराजित प्रतिमाएं इस बात की साक्षी हैं कि कुछ सदियों पहले तक वहां वैदिक मंत्र ही गूंजते थे। जब इन मंदिरों व प्रतिमाओं के बारे में सोशल मीडिया पर कोई पोस्ट आती है तो भारत में लोग 'लाइक, शेयर और कमेंट' से ही खुश हो जाते हैं कि हमारे इतिहास की जड़ें बहुत गहरी हैं! वास्तव में यह खुशी मनाने से ज्यादा इस बात पर विचार करने का समय है कि हमारे पूर्वजों के ये स्थान हमसे दूर क्यों हो गए? ऐसा क्या हुआ और क्यों हुआ, जिससे काबुल, क्वेटा, पेशावर, लाहौर, कराची, ढाका, चटगांव, सिलहट, राजशाही जैसे शहरों से हमारे पूर्वजों को अपना सबकुछ छोड़कर आना पड़ा? सदियों तक धर्मांतरण के बाद जो परिस्थितियां पैदा हुईं, वे भारत-विभाजन का कारण बनी थीं। धर्मांतरण आज भी हो रहा है, लेकिन वोटबैंक की राजनीति के कारण पार्टियां इस पर कुछ भी कहने से बचती हैं। नब्बे के दशक के आखिर में एक विदेशी रेडियो कार्यक्रम बहुत मशहूर होने लगा था, जिसमें फिल्मी गानों की प्रस्तुति के साथ ही एक खास भाषा में धर्मांतरण को बढ़ावा देने की कोशिशें की जाती थीं। दरअसल उस कार्यक्रम के निशाने पर भारत का एक राज्य था। आज ढाई दशक बाद इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि वहां तेजी से धर्मांतरण हुआ है। जब कभी बात मीडिया में आती है तो नेता, विधायक, सांसद, मंत्री आदि अपना सियासी नफा-नुकसान देखते हुए उतना ही बोलते हैं, जिससे उनके वोटबैंक के समीकरण न बिगड़ें। धर्मांतरण कराने वाले संगठनों के प्रभाव में आकर कई लोग रामनवमी, जन्माष्टमी, होली, रक्षाबंधन, दशहरा, करवा चौथ, दीपावली आदि के बारे में अनर्गल बयानबाजी करते हैं। अपने धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीय गौरव से दूर होने का परिणाम घातक ही होता है। समाज को यह बात समय रहते समझनी होगी।