आयुर्वेद दिवस की सार्थकता

निरोग शरीर ही जीवन का सबसे बड़ा धन है

आयुर्वेद दिवस की सार्थकता

Photo: PixaBay

दिनेश प्रताप सिंह ‘चित्रेश’
मोबाइल : 7379100261

Dakshin Bharat at Google News
भारतीय सामाजिक जीवन में उत्सवों-पर्वों की एक अटूट परम्परा सदियों से विद्यमान है| दीपावली के दो दिन पूर्व मनाये जाने वाले धनतेरस की प्राचीनता भी निर्विवाद है| सन् २०१६ में माननीय प्रधानमंत्री जी ने इसे ‘आयुर्वेद दिवस’ घोषित कर दिया था| आयुर्वेद दिवस के रूप में संज्ञापित होकर इसका देश-देशान्तर में क्षेत्र विस्तार ही नहीं हुआ, बल्कि यह अपने मूल मन्तव्य पर पुनर्स्थापित भी हो गया| वास्तव में धनतेरस एक तद्भव शब्द है, जो ‘धन्वन्तरि त्रयोदशी’ के बिगड़ने से बना  है| भागवत पुराण के एक प्रसंग के अनुसार, कार्तिक कृष्णपक्ष त्रयोदशी को समुद्र मंथन से धन्वन्तरि महाराज अमृत कलश के साथ अवतरित हुए थे| इसी की स्मृति में धन्वन्तरि त्रयोदशी’ का पर्व अस्तित्व में आया था| धन्वन्तरि महाराज पृथ्वी के आदि वैद्य हैं| अपने आरम्भिक रूप में यह स्वस्थ जीवन की कामना का पर्व था| निरोग शरीर ही जीवन का सबसे बड़ा धन है| आर्ष चिन्तन समस्त सुख-सम्पदा के समक्ष स्वस्थ जीवन को सर्वोपरि स्थान प्रदान करता है| इसलिए दिवाली के पर्वों की शृंखला में इसका प्रथम स्थान है|

इस पर्व पर पात्र क्रय की परम्परा भी पुरातन है| किन्तु तब यह धन्वन्तरि के अमृत-कलश से अनुप्रेरित थी| इसका निहितार्थ स्वास्थ के लिए आसव-अरिष्ट संचय हेतु पात्र की उपलब्धता से था| भारतीय पौराणिक वांगमय में धन्वन्तरि को आयुर्वेद का जनक माना गया है| प्राचीन आर्ष ग्रंथों में काशीराज, दिवोदास, नकुल और सहदेव धन्वन्तरि के पूर्ण अथवा आंशिक अवतार के रूप में चर्चित हैं| कश्यप और सुश्रुत संहिताओं में भगवान धन्वन्तरि को रोगों से मुक्ति दिलाने वाला देव कहा गया है| धन्वन्तरि ने अष्टांग आयुर्वेद का प्रवर्तन किया और विश्वामित्र के पुत्र सुश्रुत सहित आठ शिष्यों को इसके प्रसार का दायित्व प्रदान किया था|  कालान्तर में धन्वन्तरि की एक परम्परा विकसित हो गई थी| योग्य आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरि कहे जाने लगे थे| धन्वन्तरि परम्परा के अन्तर्गत आयुर्वेद ने औषधि विज्ञान को इतना व्यापक बना दिया था कि उस समय ऐसा कोई रोग नहीं था, जिसकी चिकित्सा इस शास्त्र में न रही हो| प्राचीन उल्लेखों से ऐसे संकेत मिलते हैं कि यहॉं इतने गुणी और निपुण चिकित्सक थे, जिनकी ख्याति देश-विदेश में व्याप्त थी| यूनान, मिश्र, रोम, फारस तक के रोगी इनके यहॉं चिकित्सा के लिए आते थे|

प्राचीन काल में ‘धन्वन्तरि त्रयोदशी’ को वैद्यगण विधि-विधान से भगवान धन्वन्तरि की सामूहिक पूजा-अर्चना करते थे| आयुर्वेद के विकास के सम्बन्ध में गंभीर गोष्ठियों के आयोजन होते थे, जिसमें वैद्य लोग अपनी समस्याओं और अनुभवों का आदान-प्रदान करते थे| गॉंव के बड़े-बूढ़े लोग परम्परा से प्राप्त गुप्त औषधियों का ज्ञान इसी दिन परिवार, पड़ोस अथवा सुयोग्य व्यक्ति को को देते थे|

उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक आयुर्वेद और धन्वन्तरि विषयक परम्पराएं सुदृढ़ थीं, किन्तु उत्तरार्द्ध के दशकों में आयुर्वेद की महिमा क्षीण होने लगी थी| वास्तव में इस समय तक भारतीय समाज में पश्चिम से आयातित शिक्षा में दीक्षित एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया था, जो देसज ज्ञान-विज्ञान को हेय दृष्टि से देखता था| इनके लिए पाश्चात्य परम्पराएं स्तुत्य और मान्य थीं| फलस्वरूप अंग्रेजों के साथ आई तात्कालिक लाभ देने वाली ‘एलोपैथी’ की आंधी में देर से किन्तु, जड़ से रोग निवारण करने वाली आयुर्वेद की सदियों पुरानी जड़ें छिन्न-भिन्न होने लगीं| ऋतु परिवर्तन के साथ आहार-व्यवहार में बदलाव की संस्कृति हेय बन गई| ऐसी स्थिति में प्रकृति के अनुशासन में बंधकर जीवन जीने का संदेश देने वाले आयुर्वेद की अर्थवत्ता समाप्तप्राय हो गयी| बस, इस अवसर पर पात्र क्रय और ‘यम दीपक’ जैसी लोक जीवन में गहरी पैठ रखने वाली परम्पराएं ही बची रह गईं|  बाद में गुलामी के लम्बे काल खण्ड और विदेशी विचारों ने हमारी गौरवयुक्त परम्पराओं व मान बिंदुओं पर धुंध की चादर तान दी| परिदृश्य इतना अदृश्यता की परिधि में आ गया कि हमें अपने गौरव, ज्ञान या मान का आदर ही न रहा| हर क्षेत्र में विदेशी दृष्टि से देखा जाना ही प्रगतिशीलता का प्रतीक बन गया| हमारी परम्परा में ज्ञान का वास था, वह हमारे लोक का अटूट हिस्सा थी| उससे हमारी रीति-नीति का निर्धारण होता था| यह व्यवस्था खत्म हुई तो बाजार की ताकतें मूल्य तय करने लगीं| परिणामतः ‘धन्वन्तरि त्रयोदशी’ धनतेरस बनकर पिछले पचास साल से सीधे-सीधे खरीदारी का उत्सव बन गया था|

यह एक सुयोग है कि मोदीजी ने प्रधानमंत्री बनने के साथ ही देसज ज्ञान-विज्ञान के पुनर्स्थापन और पुर्ननवीकरण पर ध्यान देना शुरू किया| योग और आयुष उनके एजेंडे में प्रमुख स्थान रखते थे| पहले उन्होंने ‘योग दिवस’ के बहाने दुनिया में योग का जनाधार प्रबल किया, फिर आयुर्वेद, यूनानी, प्राकृतिक चिकित्सा, सिद्ध, होम्योपैथी पर सकारात्मक निर्णय लिया| इससे विश्व स्वास्थ्य संगठन भी प्रभावित हुआ और उसने ग्लोबल सेंटर फॉर ट्रेडिशनल मेडिसिन की स्थापना के लिए भारत को चुना| इसकी स्थापना के बाद दुनिया में पुरातन भारतीय चिकित्सा पद्धति को नई और सशक्त पहचान मिली|

वैसे भी पिछले कुछ वर्षों से एलोपैथी के साइड इफेक्ट और रिएक्सन से आक्रांत विश्व मानस आयुर्वेद की तरफ झुक रहा था| पश्चिम के चिकित्साशास्त्री भी स्वीकारने लगे थे कि आयुर्वेद मनो-दैहिक स्तर पर स्वस्थ्य जीवन देने वाली एक पूर्ण चिकित्सा पद्धति है| इसके साथ ही बहुराष्ट्रीय औषधि कम्पनियॉं भारत की जैव विविधता और वनस्पतियों को लेकर विशेष दिखने लगीं| देश के परम्परागत ज्ञान की चोरी भी आरम्भ हो गई| बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने परम्परागत रूप से ठेठ देसी दस हजार पेटेंट अपने पक्ष में करा लिये| इसमें से नीम, हल्दी और बासमती को लम्बी मुकदमेबाजी के बाद वापस कराया जा सका है| हालांकि अब ‘आयुष मंत्रालय’ और ‘विज्ञान एवं औद्योगिक अनुसंधान केंद्र’ संयुक्त रूप से देशज चिकित्सकीय ज्ञान के डिजिटलीकरण में लगे हैं, मगर इससे अतिक्रमण की चुनौती पूर्णरूपेण समाप्त नहीं हुई है|

यहीं ‘आयुर्वेद दिवस’ की विशेष सार्थकता है| यह संवाद के नए-नए अवसर देगा| भारतीय संस्कृति में सामाजिक संवाद ही वह शक्ति रही है, जिसके माध्यम से प्राचीन ज्ञान-विज्ञान अक्षुण्ण रह पाया है| ‘आयुर्वेद दिवस’ से निःसृत संवाद एवं चिन्तन धन्वन्तरी और आयुर्वेद को जन जीवन के मध्य संस्कृति के अभिन्न अंग के रूप में मान्य बनाएगा| यह चेतना विकसित हो जाएगी तो संवाद की धारा के बीच हम अपनी परम्परा, विश्वास और मान्यताओं के निहितार्थ को सही पहचान के साथ जीवन में प्रतिष्ठित कर लेंगे| फिर हमारे ज्ञान और परम्परा को लूटने वालों को कड़े  प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा| क्योंकि सांस्कृतिक अस्मिता के रक्षार्थ लड़ने वालों को ढूंढना नहीं पड़ता, बल्कि यह अखंड आत्मबल के साथ प्रखर शक्ति बनकर स्वयं सामने आते हैं|

About The Author

Dakshin Bharat Android App Download
Dakshin Bharat iOS App Download