अब तो चुप्पी तोड़ें यूनुस!

चिन्मय कृष्णदास पर आरोप है कि उन्होंने बांग्लादेशी झंडे का अपमान किया

अब तो चुप्पी तोड़ें यूनुस!

ऐसा लग ही नहीं रहा कि बांग्लादेश में कोई सरकार है!

बांग्लादेश से आ रहीं खबरों पर गौर करें तो ऐसा आभास होता है कि यह पड़ोसी देश एक बार फिर 'वर्ष 1971' से गुजरने को आमादा है। इसकी अंतरिम सरकार का नेतृत्व कर रहे मोहम्मद यूनुस उन ग़लतियों को दोहरा रहे हैं, जो कभी जुल्फिकार अली भुट्टो, याह्या खान, टिक्का खान और एएके नियाजी ने की थीं। बस फर्क इतना है कि तब शिकस्त और बंटवारे का ठीकरा फोड़े जाने के लिए कई सिर थे, अब यूनुस अकेले हैं। जब बांग्लादेश पूर्वी पाकिस्तान हुआ करता था, वहां आम लोगों, खासकर अल्पसंख्यकों पर अत्याचार बहुत ज्यादा बढ़ गए थे, तब भारत उनके लिए संकटमोचक बनकर आया था। हमारी हर सरकार ने बांग्लादेश के आर्थिक विकास के लिए सहयोग किया, लेकिन इसका बदला जिस तरह मिला, वह दु:खद है। हाल के महीनों में वहां जिस भयानक स्तर पर हालात बिगड़े, उन्हें देखकर साफ पता चलता है कि इस पड़ोसी देश में भारतविरोधी भावनाओं की जड़ें काफी गहरी हैं। बांग्लादेश में 'अर्थशास्त्री' के नेतृत्व में अल्पसंख्यकों, खासकर हिंदुओं पर अत्याचार का ग्राफ घटने के बजाय बढ़ता जा रहा है। उनके घरों, प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया जा रहा है। ऐसा लग ही नहीं रहा कि बांग्लादेश में कोई सरकार है। अगर सरकार है तो कट्टरपंथियों के हौसले इतने बुलंद क्यों हैं? क्या यूनुस ने उनके साथ कोई गुप्त संधि कर रखी है या वे जानबूझकर धृतराष्ट्र बन रहे हैं? अत्याचार की कई घटनाओं के बाद हिंदू धर्मगुरु चिन्मय कृष्णदास को जिस आरोप में गिरफ्तार किया गया, वह बांग्लादेश में गहरे असंतोष के बीज बो सकता है। इससे उसकी अखंडता और संप्रभुता भी खतरे में पड़ सकती हैं।

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चिन्मय कृष्णदास पर आरोप लगाया गया है कि उन्होंने विरोध प्रदर्शन के दौरान बांग्लादेशी झंडे का अपमान किया, चूंकि भगवा ध्वज को ज्यादा ऊंचा फहराया गया था! इस आरोप का यह कहते हुए खंडन किया जा रहा है कि 'बांग्लादेशी झंडे का अपमान करने' जैसी कोई मंशा ही नहीं थी। अगर बांग्लादेशी सरकार उक्त आरोप को इतना गंभीर मानती है तो उसे उन लोगों को भी जेल में डालना चाहिए, जो कुछ महीने पहले शेख मुजीबुर्रहमान की प्रतिमा पर हथौड़े चला रहे थे। क्या यूनुस इतना हौसला दिखा पाएंगे? अगर भगवा झंडा फहराना 'देशद्रोह' है तो राष्ट्रपिता की प्रतिमा पर हथौड़े चलाना, महिला प्रधानमंत्री के वस्त्रों का सड़कों पर अश्लील प्रदर्शन करना कौनसी 'देशभक्ति' है? जिन लोगों ने पूरे बांग्लादेश में हिंसक हुड़दंग मचाया, अल्पसंख्यकों पर हमले किए, वे तो आज तक खुले घूम रहे हैं। यूनुस इतनी फुर्ती ऐसे तत्त्वों को गिरफ्तार करने में क्यों नहीं दिखाते? वहां तो वे पूरी तरह उदासीन और निष्क्रिय दिखाई देते हैं। वास्तव में बांग्लादेश में जिसकी भी सरकार रही हो, इसने हमेशा 'दो चेहरे' रखे। एक ऐसा, जिसे दिखाकर यह खुद को विकासशील, प्रगतिशील और कर्मठ बताता रहा। इससे इसे विभिन्न देशों, अंतरराष्ट्रीय संगठनों से सहायता लेने में आसानी हुई। इसका दूसरा चेहरा वह था, जो लगभग अदृश्य ही रहा। बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की कई घटनाएं हुईं, लेकिन उनके बारे में मीडिया में चर्चा नहीं हुई। वहां कई लेखकों को अपने प्रगतिशील विचारों की कीमत जान देकर चुकानी पड़ी। कई तो वहां से जान बचाकर भागे, क्योंकि कट्टरपंथी किसी भी वक्त धावा बोल सकते थे। बांग्लादेशी नेतागण वोटबैंक और कुर्सी बचाने के लिए कट्टरपंथी तत्त्वों से समझौते करते रहे। वहीं, आए दिन अत्याचारों से त्रस्त होकर अल्पसंख्यक समुदाय के लोग देश छोड़ने को मजबूर हो गए। यह सिलसिला आज तक जारी है। बांग्लादेश में विदेशी मीडिया के कैमरे नहीं पहुंचे, जो पहुंचे, वे भी 'धुंधले' हो गए! दुर्भाग्य रहा कि भारत समेत कई देशों के बड़े-बड़े नेता हिंदुओं के मानवाधिकारों के लिए खुलकर बोलने से हिचकते रहे। अब जबकि बांग्लादेशी हिंदू अपने लिए ख़ुद आवाज उठा रहे हैं तो डोनाल्ड ट्रंप समेत कई नेता, सामाजिक कार्यकर्ता चुप्पी तोड़ने लगे हैं। चुप्पी तो यूनुस को भी तोड़नी चाहिए। अगर वे बांग्लादेश में शांति स्थापित करने में सक्षम नहीं हैं तो उन्हें मदद मांगनी चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि उनकी चुप्पी रह जाए और बांग्लादेश टूट जाए!

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