सराहनीय कदम
निस्संदेह आज कानूनी उपायों से बाल विवाह में बहुत कमी आ गई है
आज की अर्थव्यवस्था ज्ञान आधारित है
असम सरकार ने बाल विवाह के खिलाफ व्यापक मुहिम चलाकर सराहनीय कदम उठाया है। यह एक ऐसी कुरीति है, जिसने अब तक न जाने कितनी बच्चियों की ज़िंदगी तबाह कर दी। जो उम्र खेलने और पढ़ने की होती है, उसमें इन मासूम बालिकाओं को गृहस्थी में डाल देना सरासर जुल्म है। यह उस बालक के साथ भी जुल्म है, जिसे पता ही नहीं होता कि विवाह कितनी बड़ी जिम्मेदारी है। इससे उसकी पढ़ाई और भविष्य को धचका लगता है।
शारीरिक और मानसिक रूप से अपरिपक्व इन 'दंपतियों' की संतानें कितनी स्वस्थ होंगी और वे (वर्तमान परिस्थितियों में) राष्ट्र की प्रगति में क्या योगदान देंगी? राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, महात्मा ज्योतिबा राव फुले और डॉ. भीमराव अंबेडकर सरीखे महापुरुषों ने इस बुराई का कड़ा विरोध किया था, जिससे समाज में जागरूकता आई।निस्संदेह आज कानूनी उपायों से बाल विवाह में बहुत कमी आ गई है, लेकिन यह कुरीति पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। ऐसे मामलों में प्राय: यह कुतर्क दिया जाता है कि बाल विवाह कोई नई बात नहीं है, चूंकि हमारे बुजुर्गों के ज़माने में यह सामान्य रूप से प्रचलित था। ये लोग जानते ही नहीं कि उस ज़माने और इस ज़माने में कितना अंतर आ गया है। तब के हालात अलग थे, आज के हालात अलग हैं।
आज की अर्थव्यवस्था ज्ञान आधारित है। जिस समाज में जितने लोग शिक्षित, स्वस्थ और कौशल संपन्न होंगे, उनके लिए प्रगति करने की संभावनाएं उतनी ही ज्यादा होंगी। निस्संदेह विवाह निजी, पारिवारिक एवं सामाजिक आवश्यकता है, जिसे उपयुक्त समय पर होना चाहिए, लेकिन इसका यह अर्थ तो नहीं कि रस्म अदायगी के नाम पर नन्हे और मासूम बच्चों को गृहस्थी में जोत दिया जाए! पहले उन्हें शिक्षित किया जाए। उनके पास रोजगार हो। उन्हें बतौर पति/पत्नी और नागरिक, अपने कर्तव्यों की जानकारी होनी चाहिए।
शास्त्रों में नर और नारी को जीवनरथ के दो पहिए बताया गया है। अगर इस रथ को भलीभांति आगे बढ़ाना चाहते हैं तो जरूरी है कि दोनों पहिए सक्षम हों। इनमें से कोई एक या दोनों ही कमज़ोर हुए तो ज़िंदगी की गाड़ी हिचकोले खाने लग जाएगी।
प्राय: बाल विवाह के मामलों में बच्चियां ज्यादा पीड़ित होती हैं। मां-बाप के घर से विदाई के बाद ससुराल में उनके नन्हे कंधों पर उम्मीदों का बड़ा बोझ लाद दिया जाता है। चूंकि इस बीच पढ़ाई चौपट हो जाती है, इसलिए भविष्य की संभावनाओं पर भी पानी फिर जाता है। फिर एक समय ऐसा आता है, जब यह अहसास होता है कि अगर उसे भी पढ़ने-लिखने का मौका मिला होता, बाल विवाह न किया होता तो उसकी ज़िंदगी बहुत बेहतर होती।
आज बच्चियों में जागरूकता आ रही है। अब वे शिक्षा प्राप्त कर सैनिक, वैज्ञानिक, शिक्षक, चिकित्सक ... बन रही हैं। वे आगे बढ़कर प्रशासन को बाल विवाह की सूचना दे रही हैं। कई बच्चियां तो अपना बाल विवाह निरस्त करवा चुकी हैं। वे बड़ी से बड़ी कामयाबी हासिल कर रही हैं तो इसके पीछे उनकी मेहनत और हमारे उन समाज सुधारकों का संघर्ष भी है, जिन्होंने इनके अधिकारों के लिए आवाज उठाई थी।
सोचिए, जो बालिका दस-पंद्रह साल की उम्र में पढ़ाई छुड़वाकर ससुराल भेज दी जाए और वहां उसका सामना गृहस्थी के रोज़मर्रा के मसलों से हो, उसके लिए आज प्रगति करने के कितने अवसर होंगे? जो मासूम बच्ची पायलट, चिकित्सक, इंजीनियर ... बनना चाहती थी, आज (बाल विवाह के बाद) इतनी कड़ी प्रतिस्पर्द्धा के माहौल में वह अपने उद्देश्य में कितनी सफल होगी? सरकारों को चाहिए कि बाल विवाह के चलन को पूरी तरह खत्म करने के लिए जितने संभव उपाय हों, जरूर करें। अगर जरूरत पड़े तो सख्ती भी बरतें।