लोकतंत्र समर्थक?
शेख मुजीब ही वह व्यक्ति थे, जिन्होंने उन्हें पाकिस्तान के शिकंजे से मुक्ति दिलाने के लिए पहली हुंकार भरी थी
उन अल्पसंख्यक हिंदुओं का क्या अपराध है, जिनके घरों को निशाना बनाया जा रहा है?
बांग्लादेश में आरक्षण के विरोध के साथ शुरू हुआ 'आंदोलन' शेख हसीना के प्रधानमंत्री पद से हटने और देश छोड़कर चले जाने के बाद अपने रास्ते से भटकता प्रतीत होता है। 'प्रदर्शनकारी', जिनमें से कई लोग बाद में उपद्रवी बन गए, उन्होंने प्रधानमंत्री के आवास पर जिस तरह हुड़दंग मचाया, लूटमार की, वह अशोभनीय था। वे शेख हसीना की नीतियों से खासे नाराज थे। अगर वे उनका विरोध ही करते तो उसे जायज माना जा सकता था, लेकिन शेख मुजीबुर्रहमान (जो बांग्लादेश के राष्ट्रपिता का दर्जा रखते हैं) की प्रतिमा पर हथौड़ा चलाना न्यायोचित नहीं था। बांग्लादेशी यह न भूलें कि शेख मुजीब ही वह व्यक्ति थे, जिन्होंने उन्हें पाकिस्तान के शिकंजे से मुक्ति दिलाने के लिए पहली हुंकार भरी थी। अगर वे याह्या और भुट्टो के साथ गठजोड़ कर लेते तो आज बांग्लादेशियों का 'लोकतंत्र' से उतना ही संबंध होता, जितना उ. कोरिया का है। वे जनरल आसिम मुनीर के रहमो-करम पर होते। आज बांग्लादेश में 'प्रदर्शनकारी' खुद को लोकतंत्र का समर्थक बता रहे हैं। ये कैसे लोकतंत्र समर्थक हैं, जो अपने ही अल्पसंख्यक हिंदू भाइयों के घरों में जबरन घुसकर तोड़फोड़ कर रहे हैं? सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो में जो कुछ दिखाई दे रहा है, उससे इतना अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है कि बांग्लादेश ने कुछ प्रगति जरूर की, लेकिन लोकतंत्र को मजबूत करने की वह भावना अब तक वहां विकसित नहीं हुई है, जो होनी चाहिए थी। लोकतंत्र कोरी नारेबाजी का नाम नहीं है। यह अपने साथ बहुत बड़ी जिम्मेदारी लेकर आता है। बांग्लादेश में प्रधानमंत्री आवास में उपद्रवियों ने जिस तरह हुड़दंग मचाया, क़ीमती सामान से लेकर छोटी-मोटी चीज़ों तक को लूटा, उससे दुनिया में इस देश की छवि धूमिल ही हुई है।
उन अल्पसंख्यक हिंदुओं का क्या अपराध है, जिनके घरों को निशाना बनाया जा रहा है? क्या यही कि वे बांग्लादेश में पैदा हो गए? जिन लोगों ने वर्षों मेहनत कर रकम जोड़ी, उससे घर बनाए, अपने धार्मिक स्थलों का निर्माण कराया, व्यावसायिक प्रतिष्ठान शुरू किए ... उनकी पूरी मेहनत को उपद्रवियों ने मिनटों में मटियामेट कर दिया! आश्चर्य की बात है कि भारत और दुनियाभर में मानवाधिकारों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात करने वाले संगठन तथा 'बुद्धिजीवी' इस मुद्दे पर खामोश हैं! उन्हें कहीं कुछ लिखना-बोलना पड़ रहा है तो सिर्फ खानापूर्ति कर रहे हैं। दुनिया में मानवाधिकारों की स्थिति पर हमेशा उपदेश देने वाले अमेरिका के राजनयिक इन हालात पर क्या कहेंगे? उन्हें तो 'स्थिति पर करीब से नजर बनाए रखने' में विशेषज्ञता प्राप्त है! सीएए की प्रासंगिकता पर सवाल उठाने वाले पश्चिम के कथित थिंक टैंक कहां ओझल हो गए? क्या उनके पास बांग्लादेशी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर कोई योजना है या वे दो-चार महीने बाद भारत को ही मानवाधिकारों पर उपदेश देंगे? बांग्लादेश के हालात ने एक बार फिर साबित कर दिया कि सीएए इसलिए बहुत जरूरी है। इस पड़ोसी देश में अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं हैं। बांग्लादेश के लोकतंत्र की शान में कितने ही कसीदे पढ़े जाएं, वहां अल्पसंख्यकों पर खतरा मंडराता रहेगा। न उनके घर सुरक्षित हैं, न मंदिर सुरक्षित हैं, न भविष्य सुरक्षित है, न जीवन सुरक्षित है। हां, भारत सरकार को इस समूचे घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए विभिन्न फैसलों के साथ एक खास फैसला जरूर लेना चाहिए। देशभर में जहां कहीं अवैध बांग्लादेशी रह रहे हैं, उनकी पकड़-धकड़ की जाए। उनमें से कई लोग पहले ही अपराधों में लिप्त पाए जा चुके हैं, लिहाजा हमें अपने देश और देशवासियों की सुरक्षा से जुड़ा कोई जोखिम नहीं लेना चाहिए। घुसपैठ विरोधी कानूनों को सख्त बनाया जाए। जो व्यक्ति घुसपैठ करे, उसे तो सख्त सजा मिलनी ही चाहिए। जो घुसपैठिए की मदद करे, उसे ज्यादा सख्त सजा मिलनी चाहिए। एक भी घुसपैठिए का बोझ हम भारतवासी क्यों उठाएं?