तथ्यों से 'छेड़छाड़' क्यों?

ऐसी फिल्मों और वेब सीरीजों के पीछे एक खास तरह की रणनीति भी होती है ...

तथ्यों से 'छेड़छाड़' क्यों?

आईसी-814 पर माकपा नेत्री सुभाषिनी अली का यह कहना भी अतिशयोक्तिपूर्ण है

फिल्मों और वेब सीरीजों में तथ्यों से 'छेड़छाड़' करने का बढ़ता चलन गंभीर चिंता का विषय है। इनका समाज पर गहरा प्रभाव होता है। दर्शकों को यह जानने का पूरा अधिकार है कि उन्हें जो कुछ दिखाया जा रहा है, वह तथ्यात्मक रूप से सही हो। वेब सीरीज ‘आईसी-814: द कंधार हाइजैक’ में विमान के अपहर्ताओं के नाम बदलकर उन्हें जिस तरह पेश किया गया है, उससे इसके निर्माताओं की मंशा पर कई सवाल उठते हैं। 

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ऐसी वेब सीरीज बनाने के लिए बहुत अध्ययन करना होता है, तथ्य जुटाए जाते हैं, घटना के प्रत्यक्षदर्शियों से मुलाकातें की जाती हैं, जो बिंदु अत्यंत महत्त्वपूर्ण हों, उन्हें प्रमुखता से उठाया जाता है। इसके बावजूद निर्माताओं ने अपहर्ताओं को इस तरह कैसे पेश कर दिया? क्या यह अनजाने में हो गया? ऐसा नहीं हो सकता कि वेब सीरीज की पटकथा और संवाद लिख दिए जाएं और लेखक को अपहर्ताओं के असल नाम भी मालूम न हों! 

ऐसी फिल्मों और वेब सीरीजों के पीछे एक खास तरह की रणनीति भी होती है, जिसके तहत जानबूझकर कोई विवाद खड़ा किया जाता है, ताकि लोग उनकी ओर ध्यान दें, वे सोशल मीडिया पर चर्चित हों और उन्हें ज्यादा से ज्यादा लोग देखें। हालांकि ऐसी रणनीति हमेशा काम नहीं आती। पूर्व में सोशल मीडिया पर 'बहिष्कार' की अपीलों के बाद कुछ फिल्में औंधे मुंह गिर चुकी हैं। 

एक अभिनेता, जिन्हें इस देश की जनता ने बहुत प्रेम और सम्मान दिया, उनकी फिल्में देख-देखकर उन्हें कामयाबी की बुलंदियों तक पहुंचा दिया, वे कुछ साल पहले यह शिकायत करने लगे थे कि भारत में 'असहिष्णुता' बहुत बढ़ गई है! यह अलग बात है कि वे एक फिल्म में देवी-देवताओं का बहुत मजाक उड़ाते दिखाई दिए थे।

आईसी-814 पर माकपा नेत्री सुभाषिनी अली का यह कहना भी अतिशयोक्तिपूर्ण है कि 'इससे ... को डर है कि युवाओं को वाजपेयी सरकार द्वारा आतंकियों को छोड़े जाने का पता चल जाएगा!' इसमें डर की क्या बात है? उस घटना के बारे में काफी जानकारी ऑनलाइन उपलब्ध है। 

हां, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार ने दुर्दांत आतंकवादी मसूद अजहर, उमर शेख और मुश्ताक अहमद जरगर को रिहा किया था, क्योंकि उस समय आतंकवादियों द्वारा बंधक बनाए गए अपने नागरिकों की जान बचाना भारत सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता थी। अगर सरकार इसी बात पर अड़ी रहती कि 'आतंकवादियों की एक भी मांग नहीं मानेंगे' तो क्या होता? 

उससे उन बंधकों की जान जा सकती थी। आतंकवादी उन पर बंदूकें तानें खड़े थे। अगर सरकार किसी भी आतंकवादी को नहीं छोड़ती और उधर आतंकवादी उन यात्रियों पर गोलियां बरसाना शुरू कर देते तो ये ही 'बुद्धिजीवी' तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी को दोष देते कि आपने मामले को गंभीरता से नहीं लिया, आपको लोगों की जान की परवाह ही नहीं है ...! 

उन आतंकवादियों को छोड़ने के फैसले की यह कहकर भी आलोचना की जाती है कि इससे जैश-ए-मोहम्मद का जन्म हुआ, आतंकवादियों के हौसले बढ़े। यह आलोचना पूरी तरह गलत भी नहीं है। कुछ लोग उत्साह में यह भी कह देते हैं कि 'ऐसे खूंखार आतंकवादियों को जेलों में रखा ही क्यों, उनका पहले ही एनकाउंटर क्यों नहीं कर दिया, सरकार ने उन्हें छोड़ा ही क्यों था'! 

अगर हर खूंखार आतंकवादी का खात्मा एनकाउंटर में हो जाए, तो भी कई लोग पूरी तरह संतुष्ट नहीं होंगे। वे सवाल करेंगे- क्या यही एक तरीका था? क्या उसे जिंदा नहीं पकड़ सकते थे? कहीं सच को छिपाने की कोशिश तो नहीं हो रही है? सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक तक का सबूत मांगने वाले लोग उस आतंकवादी के एनकाउंटर का भी सबूत मांगेंगे और कुछ तो उसके 'अधिकारों की रक्षा' का मुद्दा उठाकर न्यायालय का दरवाजा भी खटखटा देंगे। भले ही आम नागरिकों के अधिकारों की रक्षा हो या न हो! 

जिन्हें किसी मुद्दे पर विवेक एवं बुद्धिपूर्वक विचार करने के बजाय कोरा विरोध ही करना आता है, वे हर फैसले का विरोध ही करते रहेंगे। उन्हें इसकी स्वतंत्रता है। विवेकशील लोगों को तथ्यों की सही जानकारी लेनी चाहिए और किसी भी अतिशयोक्तिपूर्ण प्रचार एवं विचार से सावधान रहना चाहिए।

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