रणनीति या मजबूरी?

अमेठी से राहुल गांधी की हार के बाद उनके फिर से इसी सीट से चुनाव लड़ने को लेकर कुछ संशय था

रणनीति या मजबूरी?

राहुल के अमेठी छोड़ने से भाजपा को 'शब्दबाण' छोड़ने का एक और मौका ज़रूर मिल गया

कांग्रेस ने अमेठी और रायबरेली लोकसभा सीटों के लिए जिस तरह उम्मीदवारों की घोषणा की, उसने मतदाताओं को थोड़ा चौंकाया और कार्यकर्ताओं को थोड़ा मायूस किया। नामों की घोषणा में बहुत देरी की गई। नामांकन दाखिल करने के आखिरी घंटों में जाकर पर्चा भरा गया। अब सबसे ज्यादा चर्चा इसी बात को लेकर है कि राहुल गांधी को अमेठी से रायबरेली क्यों भेजा गया? अमेठी वह सीट है, जिसे कांग्रेस का गढ़ माना जाता है। हालांकि रायबरेली की पहचान भी इससे अलग नहीं है। साल 2019 में अमेठी से राहुल गांधी की हार के बाद उनके फिर से इसी सीट से चुनाव लड़ने को लेकर कुछ संशय था, जो अब वास्तविकता बन गया है। राहुल गांधी ने केरल के वायनाड से भी पर्चा भरा था। वहां मतदान हो गया, लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी से उनकी खटपट जारी रही। तब तक कांग्रेस ने अमेठी और रायबरेली से उम्मीदवारों के संबंध में कोई 'खास' संकेत नहीं दिए थे, लेकिन मतदाता और कार्यकर्ता यही मानकर चल रहे थे कि इस बार 'भाई-बहन' अपनी परंपरागत सीटों से मैदान में उतरेंगे। राहुल पिछली बार स्मृति ईरानी से भले ही हारे, लेकिन अगर इस बार वे फिर अमेठी से चुनाव लड़ते तो कार्यकर्ताओं में ऊर्जा और उत्साह का संचार हो जाता। उनमें संदेश जाता कि हमारे नेता हार-जीत की परवाह नहीं करते। वे हमारा प्रतिनिधित्व करने और हर चुनौती से मुकाबला करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। वायनाड से राहुल गांधी की 'प्रतिद्वंद्वी' एनी राजा ने भी कहा कि कांग्रेस को (वायनाड के) लोगों को सूचित करना चाहिए था कि राहुल रायबरेली को दूसरी सीट मान रहे हैं।

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हालांकि दो सीटों से लोकसभा चुनाव लड़ने की यह कोई पहली घटना नहीं है। नरेंद्र मोदी ने साल 2014 में वाराणसी और वडोदरा, दोनों सीटों से लोकसभा चुनाव लड़ा और दोनों से जीते थे। बाद में उन्होंने वाराणसी सीट रखी। यह निर्वाचन क्षेत्र अपनी खास आध्यात्मिक पहचान रखता है और मोदी बहुत गहराई के साथ इससे खुद को जोड़ते हैं। अमेठी गांधी परिवार के सदस्यों को लोकसभा भेजने के लिए जानी जाती है। कभी यहां कांग्रेस के विद्याधर वाजपेयी का डंका बजता था, जिन्होंने दो बार इसका प्रतिनिधित्व किया था। साल 1977 में जनता पार्टी की आंधी में रवींद्र प्रताप सिंह जरूर यहां से जीत दर्ज करने में कामयाब रहे, लेकिन उनके बाद संजय गांधी और राजीव गांधी यहां से चुनकर लोकसभा पहुंचे थे। इसलिए कांग्रेस और गांधी परिवार का अमेठी से विशेष जुड़ाव रहा है। साल 1999 में सोनिया गांधी ने यहां से लोकसभा चुनाव जीतकर कांग्रेस कार्यकर्ताओं में नया जोश फूंका था। वे बल्लारी (कर्नाटक) से भी जीती थीं। उससे पहले कांग्रेस गंभीर अंतर्कलह से जूझ रही थी। माधवराव सिंधिया, राजेश पायलट, नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं का तत्कालीन अध्यक्ष सीताराम केसरी के साथ छत्तीस का आंकड़ा चल रहा था। कांग्रेस के कई नेता और कार्यकर्ता पार्टी छोड़ चुके थे। गुटबाजी हावी थी। तब सोनिया गांधी को राष्ट्रीय राजनीति में लाकर उनके कद को बड़ा करने में अमेठी के मतदाताओं और कार्यकर्ताओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उस चुनाव के नतीजों के बाद सोनिया गांधी की पार्टी पर पकड़ मजबूत होती गई। शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर के बागी रुख के बावजूद सोनिया ने कांग्रेस को दृढ़ता से संभाला और विपक्ष की नेता भी बनीं। साल 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग की सरकार भी बनी। हालांकि सोनिया ने वह चुनाव रायबरेली से लड़ा था। तब से लेकर साल 2014 तक राहुल गांधी ने अमेठी से लगातार जीत दर्ज की, लेकिन 2019 की हार उनके लिए और पार्टी के लिए बड़ा झटका साबित हुई थी। राहुल गांधी इस बार चुनाव लड़ने के लिए रायबरेली चले गए। यह प्रयोग कितना सफल होगा? यह रणनीति है या मजबूरी? यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर वे अमेठी में रहते और रायबरेली में प्रियंका को उतारा जाता तो कार्यकर्ता ज्यादा उत्साह के साथ चुनाव लड़ते। उनके अमेठी छोड़ने से भाजपा को 'शब्दबाण' छोड़ने का एक और मौका ज़रूर मिल गया।

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