सतर्कता और जागरूकता
'डिजिटल अरेस्ट' जैसा कुछ होता ही नहीं है, लेकिन बड़े-बड़े लोग इसके झांसे में आ रहे हैं
साइबर ठगों पर शिकंजा कसने के लिए पुलिस की सतर्कता और जनता की जागरूकता, दोनों की जरूरत है
इन दिनों 'डिजिटल अरेस्ट' के नाम पर जिस तरह लोगों की ज़िंदगीभर की कमाई लूटी जा रही है, वह अत्यंत चिंता का विषय होने के साथ ही इस बात का भी प्रमाण है कि पुलिस और आम जनता के बीच विश्वास की कमी का फायदा अपराधी उठा रहे हैं। 'डिजिटल अरेस्ट' जैसा कुछ होता ही नहीं है, लेकिन बड़े-बड़े लोग इसके झांसे में आ रहे हैं। हाल में सेना से बतौर मेजर जनरल सेवानिवृत्त अधिकारी से साइबर अपराधियों ने 37.68 लाख रुपए ठग लिए! जब इतने उच्च पद तक पहुंचे व्यक्ति को साइबर अपराधी डरा-धमका सकते हैं तो आम आदमी की क्या हैसियत है? वह तो थाने का नाम सुनते ही डर जाता है। उसे अपनी मामूली शिकायत दर्ज कराने से पहले ऐसा व्यक्ति ढूंढ़ना पड़ता है, जिसकी वहां 'जान-पहचान' हो! आज हालात ऐसे हैं कि लोगों को फोन या वीडियो कॉल पर कोई कह दे कि आपको 'डिजिटल अरेस्ट' किया जा रहा है, तो उनमें से ज्यादातर इस बात पर विश्वास कर लेंगे कि इंटरनेट का जमाना है, लिहाजा गिरफ्तारी का ऐसा भी कोई स्वरूप आ गया होगा! उच्चाधिकारियों और उच्च शिक्षित लोगों का भी ऐसे झांसे में आना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि वे मोबाइल पर आने वाली हर चीज पर आंखें मूंदकर भरोसा कर लेते हैं। इससे ठगों की मौज हो गई है और फेक न्यूज का 'धंधा' भी चमक रहा है। किसी सेवानिवृत्त व्यक्ति से 37.68 लाख रुपए ठग लेने का मतलब है- उसकी पूरी बचत पर हाथ साफ कर देना। लिहाजा ऐसी घटनाओं की जानकारी रखने के साथ ही इनसे दूसरों को भी सावधान करना चाहिए। जिन सेवानिवृत्त मेजर जनरल से 'डिजिटल अरेस्ट' के नाम पर ठगी हुई, उन पर वही दांव 'खेला' गया, जो ऐसे कई मामलों में महीनों से खेला जा रहा है। उन्हें फोन पर बताया गया कि आपका कूरियर आया है, जिसमें मादक पदार्थ और पांच पासपोर्ट समेत अन्य सामान है ... तीन क्रेडिट कार्ड और कपड़े भी हैं। इस कूरियर को भेजने के लिए आपके आधार कार्ड का इस्तेमाल किया गया है। इसलिए आपको 'डिजिटल अरेस्ट' किया जा रहा है।
ज्यादातर लोग ठगों की फर्जी कहानी के जाल में आ जाते हैं। उसके बाद 'डिजिटल अरेस्ट' की प्रक्रिया शुरू होती है, जिसका जिक्र कानून की किसी भी किताब में नहीं है। ऐसे हालात में लोग अपनी जान बचाने के साथ ही परिवार और प्रतिष्ठा के बारे में सोचने लगते हैं, जो कि स्वाभाविक है। वे यह भी जानते हैं कि उन्होंने ऐसा कोई सामान नहीं भेजा, लेकिन फोन पर 'पुलिस अधिकारी' की रौबदार आवाज सुनकर विश्वास कर लेते हैं कि मैंने नहीं तो किसी और ने भेज दिया होगा। वे किसी भी तरह इस 'झमेले' से बचना चाहते हैं। शुरुआती सख्ती के बाद ठग के रवैए में कुछ नरमी आ जाती है। वह हमदर्दी दिखाते हुए कहता है कि 'आप अच्छे घर के व्यक्ति हैं, इसलिए आपकी ओर से मैं इस मामले का निपटारा करवा सकता हूं ... बस इतने रुपए भेज दीजिए। चूंकि आप बेकसूर हैं, इसलिए मामले की जांच होने के बाद ये रुपए आपको वापस मिल जाएंगे।' ऐसे मामलों में लोग यह सोचते हुए ठगों को रुपए भेज देते हैं कि अब डरने की कोई बात नहीं, यह रकम तो देर-सबेर मिल ही जाएगी ... पहले इस मुसीबत से तो बाहर निकलूं।' वे अपनी पूरी जमा-पूंजी ठगों के हवाले कर देते हैं। जब तक उन्हें असलियत का पता चलता है, बहुत देर हो जाती है। हाल में जालसाजों ने एक बुजुर्ग महिला चिकित्सक को इसी तरह 'डिजिटल अरेस्ट' का भय दिखाकर 45 लाख रुपए ठग लिए थे। जो रकम उन्होंने अपनी वृद्धावस्था को सुरक्षित बनाने, पारिवारिक खर्चों और तीर्थयात्रा आदि के लिए रखी होगी, वह कुछ ही मिनटों में ठगों के पास चली गई। इन मामलों से मुख्यत: दो सवाल पैदा होते हैं- लोग ठगों की बातों पर कैसे विश्वास कर लेते हैं? वे पुलिस के पास जाने के बजाय ठगों को रुपए क्यों भेज देते हैं? इनके जवाब हैं- लोग समाचारों के विश्वसनीय स्रोतों से दूर होते जा रहे हैं। अगर उन्हें मालूम हो कि आजकल ठगी की ऐसी घटनाएं हो रही हैं तो वे समय रहते सचेत हो सकते हैं। लोग तुरंत पुलिस के पास नहीं जाते, बल्कि बड़ी रकम गंवाने के बाद जाते हैं। पुलिस को चाहिए कि वह जनता के साथ विश्वास को बढ़ावा दे, ताकि लोग ऐसी हर फोन कॉल के बारे में सूचना देकर ठगी के जाल को तोड़ने में मददगार बनें। साइबर ठगों पर शिकंजा कसने के लिए पुलिस की सतर्कता और जनता की जागरूकता, दोनों की जरूरत है।