बढ़ रहे बलात्कार, जिम्मेदार कौन?

सौ  प्रतिशत सुरक्षित समाज में स्वतः महिलाएं, बुजुर्ग, बच्चे सहज महसूस करेंगे

बढ़ रहे बलात्कार, जिम्मेदार कौन?

Photo: PixaBay

सिद्धार्थ शर्मा
मोबाइल: 9632149431

Dakshin Bharat at Google News
कोलकाता हो या कल्याण हो या बेंगलूरु तक, महिलाओं पर यौन उत्पीड़न की घटनाएं बेतहाशा बढ़ रही हैं| कभी चलती कार में, कहीं अस्पताल में, कहीं स्कूल में, कभी पहलवानों के साथ -लगातार ऐसी घटनाएं बढ़ ही रही हैं| चाहे 6 वर्ष की शहरी अबोध कन्या हो या अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ग्रामीण महिला खिलाड़ी, या मणिपुर की बुजुर्ग महिलाएं, इन सब के साथ क्रूरतापूर्ण दुष्कर्म की घटनाएँ भारत सहित विश्वभर में खबर बन रही है| इतनी की, बड़े बड़े राजनेता भी कह रहे हैं की समाज को आत्ममंथन की जरूरत है| ये लोग यह भी कह रहे हैं की सरकार ने अपराधों से और प्रभावी ढंग से निपटने के लिए कानून को मजबूत बनाने के कार्य को तेजी से आगे बढ़ाया है| पर दूसरी तरफ सर्वोच्च अदालत ने तो हाल में ये कह दिया की महिला सुरक्षा सुनिश्चित करना अब किसी सरकार से संभव नहीं हो रहा है, तो इसीलिए न्यायपालिका ने स्वयं डाक्टरों की सुरक्षा हेतु एक राष्ट्रीय टास्क फ़ोर्स बना डाला|  

मीडिया में चल रही लगातार बहस के दौरान भी भारत के बुद्धिजीवी कुछ ऐसी ही बातें करते हैं तथा कड़ी से कड़ी सजा के हिमायती दिख रहे हैं| टीवी एंकरों, राजनेताओं की मानें तो पूरा समाज दोषी है, और बुद्धिजीवियों की माने तो हर दोषी को फांसी होनी चाहिए| इन दोनों की राय लागू हो जाय तो भारत से मनुष्य प्रजाति डायनोसार के सामान लुप्त हो जायेगी|
आश्चर्य है की भारत के जिम्मेदार लोग यह भी नहीं जानते की समाज में अपराधियों की संख्या 1 प्रतिशत से भी कम होती है, तथा ऐसे अपराधी तत्वों से शेष 99 प्रतिात सज्जनों को सुरक्षा प्रदान करने हेतु ही पुलिस होती है| राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के वर्ष २०२३ के आंकड़े बताते हैं की भारत में कुल संज्ञेय अपराधों की संख्या 5824946 है| तो ०.50 प्रतिशत विकृत लोगों के कृत्यों की जिम्मेदारी शेष 99.95 शरीफों पर डालना कहॉं की समझदारी है ? यह तो चर्चा हुई समस्या की| अब देखें की भारत के ये मूर्धन्य इसका समाधान क्या बता रहे हैं|  ऐसे समय में बंगाल की मुख्यमंत्री हों, राष्ट्रपति हों, या प्रधानमंत्री से लेकर टीवी पर सभी विशेषज्ञ फांसी जैसी कड़ी से कड़ी सजा की वकालत करते दिख रहे है| निर्भया के बाद भी, और कल ही बंगाल में भी सर्वसम्मति से कडे कानून बन भी गये| असाधारण कृत्यों हेतु फांसी का पक्षधर होना स्वाभाविक होते हुए भी सच्चाई यह है सुरक्षा और न्याय भिन्न-भिन्न विषय हैं| जब किसी व्यक्ति के साथ अन्याय घटित हो जाता है तब जाकर कहीं  न्यायालय उस व्यक्ति को उसके मूल अधिकारों के हनन के नैतिक एवज में ’मुआवजे’ के रूप में न्याय देता है| कानूनों को कडा करने से न्यायालयों को ऐसे ’मुआवजे’ दने में अधिक सुविधा तो अवश्य होगी, पर ऐसी घटनाएं रोकने का काम न्यायालय नहीं कर सकते| किसी व्यक्ति के मूल अधिकारों के हनन को रोकने का काम तो सुरक्षा एजेंसियों का है| भारत में उस एजेंसी को पुलिस कहते है|

भारत के कर्णधारों को दुनिया के अन्य लोकतन्त्रों में ऐसी ही समस्या का क्या समाधान खोजा गया, इसका अध्ययन करने की फुर्सत निकालनी चाहिए| 1990 के दशक में अमरीका एवं यूरोप में घटती अपराध संख्या पर अलग-अलग शोध स्टीवन पिंकर तथा स्टीवन लेविट ने किये जिसके आश्चर्यजनक परिणाम लेविट ने 2004 के अपने शोध-पत्र में कही| इसमें कहा गया की केवल कुछ अपराधों में कमी की बाट जोहना अव्यावहारिक है| किसी समाज में कुल अपराध या तो घटते हैं या बढ़ते हैं| यूरोप एवं अमरीका के अपराध दर सार्वत्रिक रूप से घटे, चाहे वह भौगोलिक दृष्टि से हो, आर्थिक सम्पन्नता की दृष्टि से हो, या शैक्षणिक योग्यता की दृष्टि से| इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह प्रकट हुआ की इस घटती अपराध दर में बुद्धिजीवियों द्वारा बहुप्रचलित सिद्धांत, जैसे ’पुलिस सुधार’, ’फांसी की सजा’, ’कड़े क़ानून’, ’जनसंख्या नियंत्रण’, ’शिक्षा’, ’संस्कृति’ आदि का कोई स्थान नहीं था| घटती अपराध दर का एकमात्र ठोस कारण था पुलिस स्टाफ की संख्या में इजाफा| यहॉं तक की बढे हुए पुलिस दल की गुणवता भी अप्रासंगिक रही| केवलमात्र पुलिसवालों की संख्या की बढ़ोतरी से दो महाद्वीपों में अपराध दर में ठोस गिरावट देखी गयी है|

भारत में भी कई सामान्य नागरिकों से लेकर सामाजिक सरोकार वाले समूह वर्षों से यही समाधान देते आये है की क़ानून से चरित्र न कभी बना है न बनेगा, यह सच्चाई राजनेताओं एवं बुद्धिजीवियों को समझनी चाहिए| यदि वे न समझें तो आम आदमी उन्हें समझाए| अपराधियों से समाज की सुरक्षा राज्य का दायित्व है, अन्य किसी से यह संभव नहीं, यह बात आम आदमी को समझनी पड़ेगी| भारत में पुलिस की स्थिति यह है की प्रति एक लाख नागरिक केवल  145 पुलिसवाले तैनात हैं, वहीं महज 19467 वीआइपी की सुरक्षा में 66000 पुलिसवाले नियुक्त हैं| और सरकारी सूत्रों के अनुसार 6 लाख यानी 22 प्रशित पुलिस पद रिक्त हैं| इसी कारण राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2003 में भारत में कुल अपराध जहां 17 लाख से कम थे, वहीँ वे 2023  में 58  लाख से ऊपर पहुँच गए| यानी केवल 20 साल में 3 गुना से अधिक की खतरनाक वृद्धि|  उदाहरण के लिए भारत से सटे श्रीलंका की अपराध दर 2.26 अपराध प्रति एक लाख नागरिक है तो भारत का अपराध दर 446 अपराध प्रति एक लाख नागरिक है| भारत में एक लाख नागरिकों पर 145 पुलिस है तो श्रीलंका में 424 पुलिसवाले तैनात हैं|

सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है की यदि चरित्र निर्माण ही सारी समस्याओं का समाधान है तो इतनी भारी-भरकम राज्य व्यवस्था की आवश्यकता ही क्या है? क्यों न सभी सरकारी महकमों को बंद कर सकल घरेलू उत्पाद को चरित्र निर्माण में झोंक दिया जाय! समय आ गया है की हम भारत के लोग अपने स्वतन्त्र चिंतन से कुछ नतीजों पर पहुंचें, क्योंकि बीमार आदमी को समय से दवा न मिलने से जितना खतरा होता है, उससे कहीं ज्यादा खतरा गलत दवा के सेवन से होता है| समाधान अब एक ही है, जिसे पाश्चात्य विकसित राष्ट्रों ने बहुत पहले ही अपना लिया है|  राज्य अपनी सारी शक्ति नागरिकों की सुरक्षा पर लगा दे|  सुरक्षा और न्याय के अतिरिक्त सारे काम राज्य समाज को सौंप दे| सौ  प्रतिशत सुरक्षित समाज में स्वतः ही महिलाएं, बुजुर्ग, बच्चे आदि चौबीसों घंटे अपने अपने घरों से बाहर जाने में जब सहज महसूस करेंगे तो आर्थिक सामाजिक विकास स्वयं होने लगेगा|  ऊपर से सरकार को भी अधिक टैक्स मिलने लगेगा| राज्य के शक्ति विकेन्द्रीकरण से ही विकसित भारत संभव है, वर्तमान जैसे राज्य के नागरिक सुरक्षा की कीमत पर अन्य अनेकानेक विषयों में इन्वाल्व होकर ओवरलोड होने में नहीं|

About The Author

Dakshin Bharat Android App Download
Dakshin Bharat iOS App Download